काम्य-निर्णय जैसा पूर्व में कहा गया है कि "कारण के होते हुए भी कार्य न होने का चमत्कार युक्त वर्णन 'विशेषोक्ति' का विषय है,। यों तो कारण के उपस्थित होते ही स्वभावतः कार्य हो जाता है, किंतु जहां इसके विपरीत वर्णन हो-कारण की उपस्थिति में भी कार्य का न होना उक्ति-वैचित्र्य के द्वारा संतोषजनक रूप में प्रकट किया जाय तो वह उक्ति विशिष्ट होगी और वह 'विशेषोक्ति' कहलायगी, क्योंकि इस प्रकार का वर्णन विशेषता लाने के लिये ही किया जाता है । कारण के रहते कार्य के न होने के विशेष कारण होते हैं, उन्हें ही मनोरंजकता के साथ प्रकट करना कवि का ध्येय होता है । __साहित्य-दर्पण में-"सति हेतो फन्जाभावे विशेषोक्तिस्तथा द्विधा"-हेतु के रहते हुए भी फल की प्राप्ति न हो तो वहाँ विशेषोक्ति कही जायगी और वह दो प्रकार की कहते हुए-अचिंत्य-निमित्ता को अनुक्त-निमित्ता का ही भेद मान, उसे अनुक्क-निमित्ता के अंतर्गत मान पृथक् नहीं कहा है, जैसे-"अचि- त्यनिमित्तत्वं चानुक्तनिमित्तस्यैव भेद इति पृथंनोक्तम् ।" श्रीमम्मट (काव्य-प्रकाश संस्कृत ) कहते हैं-"विशेषोक्तिरवंडेषु कारणेषु फलावचः" ( कारण-सामिग्री होने पर भी कार्य का न होना ) कहते हुए “मिलितेष्वपि कारणेषु कार्यस्याकथनं विशेषोक्ति। अनुक्कनिमित्ता, उक्तनिमित्ता अचित्यनिमित्ता च" रूप पूर्व में कथित तीन भेद किये हैं। भामह भी-"एक देशस्य विगमेया गुणांतरसंस्ततिः। विशेष प्रथनायासौ विशेषोक्तिरितिस्मृता ॥" कहते हुए इसके तीनों 'उक्तानुक्त- चित्यनिमित्ता' भेद माने हैं । वामन कहते हैं - "एकगुणहानिकल्पनायां साम्पदा- ढ्यं विशेषोक्तिः" (जहाँ एक गुण की न्यूनता की कल्पना करने पर जो साम्य-पुष्टि की जाय, वहां विशेषोक्ति ) । यहाँ “उक्तानुक्तचित्यनिमित्ता के प्रति ध्वन्यालोककार का अभिमत है कि "इन तीनों भेदों में से अचिंत्य ओर उक्तनिमित्ता विशेषोक्ति में व्यंग्य की सत्ता नहीं होती और अनुक्त-निमित्ता विशेषोक्ति में प्रकरण-वश व्यंग्य की प्रतीति-मात्र होती है और न उस प्रतीति के कारण कोई सौंदर्य ही उत्पन्न होता है।" अतएव अापने विशेषोक्ति का एक ही भेद अनुक्तनिमित्ता का ही वर्णन किया है । क्योंकि अनुक्त और अचिंत्य-निमित्ता विशेषोक्ति में कार्य के प्रभाव का निमित्त नहीं कहा जाता, वह व्यंग्य रहता है । यहाँ उस व्यंग्यार्थ-शान से चमत्कार नहीं, अपितु कारण-द्वारा कार्य के उत्पन्न न होने के वाच्यार्थ में ही चमत्कार है- वाच्यार्थ ही प्रधान है। यहाँ अचित्यत्व से इतना-ही तात्पर्य है कि वह निमित्त साधारण बुद्धिवालों की समझ से परे है, सभी की समझ से दूर नहीं। कारण के रहते कार्य न होने का सहज नियम कवि अपने कौशल से उक्ति- वैचित्र्य-द्वारा भंग करता है और वह कौशल इसी में है कि वह ऐसा किसी
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