· पुनः उदाहरन जथा-- . मुनि-जन जप-तप करि चहैं, सूली-दररॉन-चाउ । जिहिं न लहें 'सूली' वहै, तसकर चहें उपाउ ।। वि०-"इस दोहे में दास जी प्रयुक्त श्लेषमय "सूली" (शूली) शब्द ने जो "श्री देवादि देव महादेव" और "फाँसी" अर्थ का द्योतक है, "व्याघात" अलंकार को अति सुंदर बना दिया है।" पुनः उदाहरन जथा-- वा अधरा-रस रागी हियो, जिय पागी वह छबि 'दास' बिसाली। नेनन सूमि परै वौ3 सूरत, वेंनन बूमि परै वही' आली ॥ लोग कलंक लगावत' हैं, औ लुगाई कियौ करें कोटि कुचालो । बादि-बिथा सखि क्यों बसि' है-री, गहै न भुजा-भरि क्यों बनमाली ।।* वि०-“दासजी ने यह उदाहरण कुछ पाठ-भेद के साथ, अपने शृगार- निर्णय" नायिका भेद के मय में भी "परकीया" के अंतर्गत "धीरत्व" के उदाहरण में दिया है। कुछ ऐसी ही बात इसी अलंकार से अलंकृत भारतेंदु वा० हरिश्चंद्रजी ने भी कही है, जैसे- "नॉम धरौ सिगरे आज के, अब कोंन-सी बात को सोच रहा है। स्यों 'हरिचंद जू और-ह लोगन माँनों दुरौ भरी, सोड सहा है। होनी दुती सो तो होइ बुकी, इन बाँतन में अब लाम कहा है। लागें कलंक-हु अंक लगों नहि, तौ सखि, भूल हमारी महा है। कविवर लच्छोराम का भी 'व्याघात द्वितीय' का उदाहरण सुंदर है, देखने योग्य है, जैसे- __ "वहि-झकझोरेन, नासिका की मोरन में, बनमाल-तोरन बिनोद बसकतु है । कवि 'सविराम' काम-कामना-कलपतरु, भों-धनु-मरोर मान-मर-मालकतु ॥ पा०-१. (का०)२०) यही...| २.(१० नि०) अनु...। ३.४. (का०) (20) (१० नि०) वहै.... ५. (का०) (2.) लाहि बन्यो, लुगाई करे कियो कोटि... (.. नि०) लगावत लाख, लुगाई । ६. (३०) क्यों न सहै री।
- .नि. (मि० दा०) १०२५, ०। ।