पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३७४

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काव्य-निर्णय ३३६ वि-"व्याघात अलंकार के विषय के प्रति संस्कृत-अलंकार प्रथों में विविध मत हैं। कोई-"जिसमें किसी वस्तु को किसी कर्ता ने एक प्रकार से सिद्ध किया हो और कोई दूसरा कर्ता उसी वस्तु को उसी प्रकार से विजय-लाभ की इच्छा के लिये तद्विपरीत बना दे।" अथवा-'जिस उपाय के द्वारा जो वस्तु किसी एक कर्ता ने सिद्ध की हो, उसी को दूसरा कर्ता प्रथम कर्ता को विजित करने की इच्छा से उन्हीं उपायों द्वारा जो उससे विपरीत रूप में कर दिया हो तो उसी को- निज साधित वस्तु के विनास का कारण होने से, 'व्याघात अलंकार कहा जाता है। यह काव्य प्रकाशकार "श्रीमम्मट" का मत है। चंद्रालोक में जयदेव कहते हैं- "जिसका जो प्रकृत गुण हो उसे हटाकर उस पर उसके विपरीति गुण का अारोप करने को "व्याघात" कहते हैं। विश्वनाथ चक्रवत्ती “साहित्य-दर्पण" ( संस्कृत ) में कहते हैं-"जो वस्तु किसो एक ने एक प्रकार से सिद्ध की है और दूसरा यदि उसी उपाय से उसी वस्तु को पहिले से विपरीति कर दे तो 'व्याघात- अलंकार' मानना चाहिये। दासजी कहते हैं-"जहाँ सच्चे कर्ता को कोई अन्यथा कर दे" वहां यह अलंकार बनता है।' इत्यादि ..इन सभी परि- भाषात्रों को लक्ष कर यदि कोई उक्त अलंकार-द्योतक परिभाषा सुंदर शब्दों में बन सकती है तो वह यह हो सकती है-"जिस उपाय से किसी व्यक्ति के द्वारा कुछ कार्य सिद्ध किया जाय और फिर उसी उपाय से-उसी प्रकार के उपाय से, दूसरे किसी व्यक्ति द्वारा वह कार्य अन्यथा कर दिया जाय, उसे विपरीति बना दिया जाय तो व्याघात' अलंकार का विषय बनता है । व्याघात "वि' और "श्राघात" शब्दों से बना है। जिसका अर्थ होता है विशेष आघात, प्रहार, धक्का । इसलिये इस अलंकार में अन्य व्यक्ति के द्वारा सिद्ध किये गये कार्य को अन्य द्वारा प्रहार करके अन्यथा किया जाता है, यथा- 'साधित वस्तु व्याहति हेतुत्वात् व्याघातः।" व्याघात में तीन बाते श्रावश्यक हैं। प्रथम यह कि "एक के द्वारा किसी उपाय से एक कार्य सिद्ध किया जाय ।" दूसरी बात है- “दूसरे के द्वारा उसी उपाय से उस कार्य को व्याघात पहुँचाकर अन्यथा कर दिया जाय" और तीसरी बात है -"वह वर्णन साधारण स्थिति का न होकर चमत्कार से पूर्ण हो।" ये तीनों कारण "प्रथम व्याघात" के हैं । इसी प्रकार दूसरे "व्याघात" (जब एक हो उपाय या तर्क से विपरीत कार्य का संपादन वा समर्थन किया जाय) में भी दो बातें आवश्यक हैं। प्रथम यह कि "एक के द्वारा एक उपाय या तर्क से किसी कार्य का होना प्रस्तावित हो" और द्वितीय-"दूसरे के द्वारा उसी उपाय वा तर्क को लेकर विपरीत कार्य सुगमता से होना कहा जाय । इस प्रकार इन दोनों भेदी