३३८. काव्य-निर्णय "होइ जहाँ कारज, ते कारन उपज" देखौ, छठई बिभावना के ऐसे उपचार भे। कहै नटनागर सकला गुन - भागर, तो अधर - सुधा ते सुख - सागर अपार भे॥" अस्तु विभावना के छहों विभेदों में मुख्य कारण छिपा कर कृत्रिम का कथन होता है। दोनों कारण-कार्य में विरोध ( गड़बड़ ) सभी स्थलों में श्राभास-मात्र का है, वास्तविक नहीं । मुख्य विरोध वहीं हैं, जहां दोनों वस्तुओं का साथ होना असंभव है। ____संस्कृत-अलंकार ग्रंथों में विभावना के प्रति--"माश्लिष्टातिशयोक्तिश्च सर्वत्र व विभावना" कहा गया है, अर्थात् विभावना में नियमित रूप से अति- शयोक्ति मिली हुई रहती है। रसगंगाधर में पंडितराज जगन्नाथ कहते हैं- "एव चास्मिनभलंकारे सर्वत्राऽपि कार्याशे अभेदाध्यवसानरूपकातिशयोक्तिरनु- प्राणकता स्थिता।" काव्य-प्रकाश ( मम्मट ) के टीकाकार नागेश भट्टजी का कथन है-"अतिशयोक्तिस्तुतदंगं ।...सर्वथा कार्या शेऽभेदबुद्धिः विभावना जीवितुम् । साच क्वचिदतिशयोक्तिकस्या क्वचिद्र पकेण...." अलंकार सर्वस्व (संस्कृत) के रचयिता कहते हैं-"वैविध्येऽप्यभेदाध्ववसायादेवस्वमतिशयो- कल्या, साचास्यामन्यभिचारिणीति नतयाधेनास्या उत्थापनम् अपितु तदनुपाणि- तत्वेन" और इसको टीका "जयरथ-विमर्शनी" में कहा गया है-"अतिशयोक्ति विनास्याभनुत्थानात् अतएवेयमतिशयोक्त्यनुप्राणितैव भवतीति सिद्धम् ।" इत्यादि इन सभी मतों का अभिप्राय है कि "बिना अतिशयोक्ति के विभावना का सिद्ध होना संभव नहीं है, अर्थात् विभावना का अस्तित्त्व अतिशयोक्ति पर-ही निर्भर है। विभावना में अतिशयोक्ति का मिश्रण अनिवार्य होते हुए भी वह प्रधान न होकर विभावना को अंगी भूत रह कर उसे (विभावना को) ही सुशोभित करती रहती है। इसलिये संस्कृत के अलंकार प्रथों में संकलित किये गये विभा- वना के उदाहरण अतिशयोक्ति-मिश्रित होते हुए भा विभावना के ही उदाहरण हैं, क्योंकि विभावना के मूल में अभेद अध्यवसाय मूलक अतिशयोक्ति का होना अति आवश्यक माना गया है।" अथ "व्याघात" अलंकार बरनन जथा- जाहि तथाकारी गर्ने, करें अन्यथा सोठ । कहूँ सुख-बिरुद्ध-ही,'है' "ब्याघात" जु दोउ ।। पा०-१. (प्र०) सो...। २. (सं० पु० प्र०) (का०) (३०) (प्र०), है ग्याघात दोउ ।
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