पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३७०

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काव्य-निर्णय ३३५ अस्य तिलक इहाँ "बनी-ब्यालिनि" में रूपक अपरांग है। वि०-"वेणी रूपी व्यालिनि (सर्पणी) का गुणों (डोरों) से बँधी होने पर भी अदबदा कर इस जाना—काट खाना, रुकावट होते हुए भी कार्य का हो जाना तृतीय विभावना के विषय का सुंदर उदाहरण है। कविराज विहारीलाल की भी इस विभावना-भेद से विभूषित अनेक सुंदर सूक्तियाँ पाई जाती है, जैसे- "देह-लग्यौ दिग गेह-पति, तऊ नेह निरवाहि । ढोली-अँखियन-ही इतै, गई कनखियन चाहि ॥" "चित वित बचत न, हरत हठि, लालन-ग बरजोर । सावधान के बटपरा, ए जागत के चोर ॥" कर-मुंदरी की पारसी, प्रतिबिंबित प्पी पाह। पीठ दिऐं निरिक नखे, इकटक दीठि लगाइ ॥" और "गोकुल कवि" कहते हैं- "रूप-भरी तरुनी तिन को लखि, तैसौ बसै चित सोभित कीन्हों। 'गोकुल' मैर मनोभव को, नख-से-सिख लों करिके भरि दीन्हों। राबरे को गुन ए जू बलाइ स्यों, पाइ-परों कछु जाइन चीन्हों। मोहन के मन कों सजनी, तुम्ह मोहन से उग को उगि लीन्हों।" अथ चतुर्थ बिभावना को उदाहरन “अकारन बस्तु ते" जथा- पाँहन-पाँहन ते कदै पाबक, क्यों' हूँ कहूँ ये बात फबै-सी। काठहू-काठ सों मूंठौ न पाठ, प्रतीति परै जग-जाहरि जैसी ॥ मोहन-पाँनिप के सरसें, रस-रंग की राधे तरंगनि ऐसी। 'दास'दहूँ की लगा लगी सों, उपजी यैदान मागि-अनैसी. अस्य तिलक इहाँ उपमा अपरांग है। पा०-१.( का० ) (३०) (प्र.) (म० म०) के... (रा० पु. नी० सी०) क....२. (३०) के मिले -बिछुरे उपजी...। ३. (प्र.) (० म०) में.... - म०म० (पो०) ५० २४१, ४२२ ।