काव्य-निर्णय विभावना" कही जाती है, जो 'उक्तानुक्त' निमित्तादि रूप से दो प्रकार की होती है। काव्य-प्रकाशादि संस्कृत-मंथों में यही दो भेद माने गये हैं। कुवल- यानंदकार ने इस प्रथम के अतिरिक्त पांच भेद और भो माने हैं, किंतु वे पांचों भेद प्रथम-भेद के अंतर्गत श्रा जाते हैं, यह काव्यादर्श और रसगंगाधर-कार का अमिमत है।" अथ प्रथम बिभावना-"विना कारन के कारज" बरनन को उदाहरन जथा- पीरी होति जाति दिन रजनी के रंग-बिन, जियरा' रहै बूड़त, तरत बिन बार-हीं। विष के बगारे बिन वाके सब अंगन, विषारे फरि डारे हैं बिलानि तिहार-हीं॥ 'दास' बिन चलें ब्रज बिन' हो चलाएं- यै चरचा चलैगी लाल बीत दिन-चार-हीं। हाइ वौ बनिता बरी है। बिन बार-हीं, जरी है बिन-जार-ही मरी है बिन मार-हीं। अथ दुतिय बिभावना को उदाहरन-“थोरे कारन सो कारज" जथा- राखत हैं जग को परदा, औ' पाप सजे दिग-अंबर राखें । भाँग-बिभूत भँडार-भरथौ, पै" भरें गृह 'दास' को जो अभिलाखें । छाँह करें सिगरे जग को, निज-छाँह को चाँहत हैं बर साख। बाँहन है बरदा इक. पं बर-दाइक बाजि मो बारन लाखं॥ श्रथ तृतीय बिभावना को उदाहरन"रोके - हूँ कारन सों कारज को हैबौ" जथा- तो बेंनी ब्यालिनि अहे. बाँधी [नन-बनाइ । तऊ बॉम, ब्रज चंद को बदाबदी डसि जाइ || पा०-१. ( का० ) (३०) जीरो...। (प्र०) मन...। २. (सं० पु० प्र०) बीन ब्रज ही.... ३. (का० ) (३०) (सं० पु० प्र०) रो बिन बारें ही. जरो-री. बिन जारें हीं, मरी-री...। ४. ( का०) (0)(प्र.) कहँ .. | ५ ( का० ) है ..। (३०) भंडार- भरी प... ६ (३०) (०) के...। ७. (सं० पु० प्र०) (का०) (३० ) सब को हर ज, निज छाँह . । ५. (का०)(३०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) बट.... ६.(का०) (३०)(प्र०) तुम.... १० (का०) (३०) रहै...। (सं० पु० प्र०) (प्र.) (०म० ) तुव बेंनी भ्याली रहै,। ११. (सं० पु० प्र०) बदीबदा...!
- ० मं० (पो०) पृ. २४५ ।