पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३६६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय "केसौदास' विरोध-मय रचियतु बचन-विचारि। तासों कहत "बिरोध" सब, कवि-कुल सुबुधि बिचारि ॥" विरोधाभास- "बरनत नगै विरोध सौ, अर्थ सबै अबरोध । प्रघट "विरोधाभास" पै, समझत सबै सुबोध ॥" अतएव "पोद्दार श्रीकन्हैयालाल" का यहाँ कहना है कि "महाकवि केशव स्वयं इन दोनों (अलंकारों) को प्रथक्ता नहीं दिखला सके हैं। उन्हों (केशव) ने विरोध का लक्षण अस्पष्ट लिखकर उदाहरण "कायादर्श' से अनुवादित सूक्ति का दिया है, यथा- "सोभित सुबास हास सुधा सों सुधारयौ विधि, विष को निबास जैसौ तैसौ मोहकारी है। 'केसौदास' पावन परम हंस गति तेरी, पर-हिय-हरन प्रकृति कों ने पारी है। बारक बिलोकि बल-बीर से बलीन कहें, करत बरहि बस ऐसी बैप-मारी है। एरी मेरी सखी, तेरी कैसे के प्रतीत कीजै, कृस्नानुसारी-पग करनानुसारी है।" यहाँ कृष्ण और कर्ण इन श्लिष्ट शब्दों के प्रयोग से जो विरोध दिखलाया गया है वह कृष्ण का "श्यामरंग" और कर्ण का कान (श्रवण) श्लेषार्थ होने से विरोध का श्राभाम रह जाता है, वास्तव में विरोध नहीं। दूसरे उदाहरण- "मापु सितासित-रूप, चितै चित स्यौम-सरीर रंगै रेंग-साते। 'केसब' कॉनन-हीन सुनें, सुको रस की रसना-बिन पाते। नैन किधों कोड अंतरजाँमी-री, जॉनति नाहिन बुझति तातें। दूर लों दौरत हैं विन-पोइन, दूर-दूरी दस्सै मति जाते। के भी प्रथम चरण में कारण के गुण से कार्य का गुण विरुद्ध होने के कारण · तृतीय विषम और शेष चरणों में कारण के अभाव में कार्य की उत्पत्ति होने के कारण प्रथम “विभावना हो लक्षित होती है, विरोध नहीं।" ला. भगवानदीनबो भी "पिया-प्रकाश" में कहते है-"प्रथम छंद- (सोभित सुबास..) के प्रथम और तृतीय चरण में विरोध है और दूसरे तथा चौथे में उसका नामांस, परमीकेशव ने विरोधाभास को विरोध के अंतर्मत-ही माना है...क्योंकि इन दोनों चरणों में श्लेष के कारण विरोध नहीं, प्रामास रह गया है।