काव्य-निर्णय प्राचार्य मम्मट ने भी अपने काव्य-प्रकाश ( संस्कृत ) के दशर्षे उल्लास में अन्य अलंकारों के साथ पूर्वापर-क्रम से अप्रस्तुत प्रशंसा तदनंतर श्राक्षेप, व्याज- स्तुति, पर्यायोक्ति और समासोक्ति का उल्लेख किया है। प्रस्तुतांकुर अलंकार आपने नहीं माना और समासोक्ति के प्रति भी आपके विचार स्फुट रूप में नहीं हैं । यो तो समासोक्ति नाम का प्रथम उल्लेख वार्त्तिक रूप में- "तुल्ये प्रस्तुते तुल्याभिधाने त्रयः प्रकाराः श्लेषः 'समासोक्तिः' सादृश्यमानं वा तुल्यात्तुल्यस्यहि आक्षेपे हेतुः ।" अर्थात् तुल्य विषय के प्रस्तुत रहने पर उसके तुल्य अप्रस्तुत विषय के वर्णन में तीन प्रकार मंभव हैं, जिन्हें-श्लेष, समासोक्ति और सादृश्य-मात्र का सद्भाव कहकर किया है। और आगे- ___ "साधारणविशेषणवशादेव समासोक्तिरनुक्तिमपि उपमानविशेष०..." में भी किया गया है, पर उसे प्रथक् अलंकार रूप से नहीं अपनाया है। यही प्रस्तुतांकुर के संबंध में भी कहा जा सकता है । अस्तु, वहाँ इन दोनों-ही अलं- कारों का उल्लेख नहीं है। "इति श्री सकलकलाधर कलाधरवंसावतंस श्रीमन्महाराजकुमार श्री बाबू हिंदूपनि-बिरचिते 'काव्य-निरनए' अन्योक्ति- भादि अलकार बरननं नाम द्वादसोलासः॥" -. .-
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