काव्य-निर्णय स्पष्ट कर दिया। साथ-ही व्यंजना के द्वारा वाच्यार्थ का अभिधान रूप जो पर्यायोक्ति का प्राण था, उसे भी अधिक स्फुट कर दिया। क्योंकि उक्त अलंकार में व्यंजना- द्वारा वाच्यार्थ का अभिधान-ध्वनि द्वारा नहीं-उसका चमत्कार व्यग्यार्थ से विभूषित नहीं, अपितु "उक्ति-वैचित्र्य" से है...। अथ प्रथम रचना सों बेन ( शब्दार्थानुरूप प्रकार ) को . उदाहरन जथा- जा तुब बेनी के बैरी के पच्छ को, राजी मनोहर सीस चढ़ाई। 'दास जू' हाथ लिऐं रहे कंठ, उरोज, भुजा, चख तेरे के भाई ।। तेरेई रंग को जा को पटा, जिन तो रद-जोति को माल बनाई। तो मुख के तौ हरायल आज, दई उनकों अति हायलताई।। दूसरौ उदाहरन मिसकरि ( व्याज से ) कारज साधिबे को जथा - आज चंदभागा, चंपलतिका • बिसाखा कों, . पठई५ हरि-बाग में कला में करि कोट-कोट । साँझ - सँमें बीथिनि में ठाँनि हग - मींचनों भुराई तिन राधे कों जुगत के निखोट-खोट । ललिता के लोचन मिचाइ चंदभागा सों, दुराइवे कों ल्याँई वे तहाँ-ई 'दास' पोट-पोट । जॉन • जॉन धरी, तिय - बाँनी लरखरी, तकि आली तिहिं घरी, हँसि-हँसि परी लोट-लोट ॥ वि० - "द्वितीय पर्यायोक्ति का लक्षण जैसा दासजी ने माना है, वह लक्षण "चंद्रालोक" ( जयदेव ) और "कुवलयानंद" के अनुसार है--पर इस लक्षणा- नुसार "पर्यायोति" ( प्रकारांतर से कहा जाना ) का जो विशेष चमत्कार है, वह स्पष्ट नहीं होता...। दंडो ने इसका लक्षण-"इष्ट-अर्थ को स्पष्ट न कह, उसकी सिद्धि के लिये प्रकारांतर से कहा जाना "माना है।" पा०-१. (३०) को...। २. (वे.) की जाकी पटा...। ३. ( का० ) हरायत...। '४. (वे.) चंद्राबली...। ५. (३०) पठाई । ६. ( का०) (३०) (प्र०) ते...! ७. नि० ) ठाँनी दृग-मींचनी...। . ( का० ) (वे.) (प्र.) लरबरी...। (0- नि.) रसभरी सन | 8. (का० ) (३०) (प्र०) धरी...।
- नि० (पास) ० १२, २४२ ।