३२० काम्य-निर्णय हो जाता है, इसलिये ऐसे स्थलों में व्यंग्य का प्राधान्य न रहने से इसे ध्वनि- काव्य या ध्वनि का विषय नहीं कहा जा सकता । अतएव वनि का अलंकारों में अंतर्भूत होने का प्रश्न नहीं उठता'- इत्यादि...। प्रथम आच्छेप "पायुस-मिस बरजिबे को उदाहरन जथा- जैसे बिदेस, महेस करै उत बात तिहारी सबै बनि भाबैं । पीतम को बरजै कछु काँम में, बॉम' यानिनि को पद पावै ॥ एती बिनै करि दासिन पै, कहि जाइबी नेक बिलंब न लावे। कॉन्ह पयाँन करो तुम्ह ता दिनों, मोहि ले देब-नदी अन्हबाबा वि.--"दासजी का प्रस्तुत उदाहरण - "अायुस-मिस बरजिबौ"-रूप श्राक्षेप का, उसके प्रथम भेद का उदाहरण कहा गया है, पर संस्कृत और ब्रज- भाषा के अलंकार-प्राचार्यों के मतानुसार श्राक्षेप अलंकार के तृतीय भेद- व्यक्ताक्षेप (जिम कथन में अनिष्ट अर्थ की ऐसी विधि हो-अाज्ञा हो, जो निषेध के तात्पर्य से गर्मित हो) का और नायिका-भेद को दृष्टि से "प्रवक्ष्य- त्पतिका" (प्रियतम के होने वाले वियोग को अाशंका से दुखित ) नायिका का उदाहरण है । अतएव उक्त नायिका का कथन है कि "श्राप प्रदेश अवश्य बाय, पर उस दिन जाय जिस दिन मुझे गंगा में नहलाया जाय, अर्थात् जब मैं "मर जाऊँ"। विधि-पूर्वक बचनों में निषेध है-विदेश-गमन रूप अनिष्ट की संमति का अामास मात्र है, विदेश-गमन रूप अनिष्टार्थ की विधि है-श्राशा है. साथ- ही अंतिम पद-द्वारा विदेश-गमन के निषेध का तात्पर्य गर्मित है। प्रवरष्यत्यतिका रूप प्रिय-गमन से दुखित नायिका के वर्णन में भी ब्रजभाषा के कवियों ने अपने से पूर्व साहित्यकारों से बाजी मार ली है। दो-एक उदाहरण, जैसे-- "मॉन के मुरी न, दसा - दुसह दुरी न, छिन एकौ बिछुरी न, रुठि हठि न हठाँऊगी। पीठ देंड जी-ही को न पीठ पी को देंउ नेक, ___ मीठ परदेस चले, उडि न विठाँऊगी। पीतम सों प्रीति की प्रतीति, मेरें और की न- प्रेम-पाठ - बैठि मोर - ऐडि न बाँकगी। पा०-१.(0) करी उतपात... (प्र०) करें...। २. (का० ) नाम...। ३. (का० )(३०) करी.... ४.(का० )(३०) (प्र०) सों...। ५. (का.) (३०) (प्र०) दिन...1 ६.( का०)(३०) नहवा ।
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