काव्य-निर्णय सादृश्यादि रूप उपमा व्यंग्य है, प्रधान नहीं। वह वाच्य को ही अलंकृत कर रही है । यहाँ 'किं पार्वणेनेंदुना' से चंद्र का निष्फलत्त्वाभिधान रूप अपमानात्मक वाच्य अधिक चमत्कारी है। इसलिये यहाँ अथवा ऐसे उदाहरणों में व्यंग्य- प्राधान्य रूप ध्वनि का असतित्व न होने से उस (ध्वनि) का आक्षेत्र में अंतर्भाव नहीं कहा जा सकता, क्योंकि व्यंग्य और ध्वनि समानार्थक नहीं । सभी प्रतीयमान अर्थ व्यंग्य है, ध्वनि नहीं। ध्वनि वहीं मानी जायगी, जहाँ व्यंग्य का प्राधान्य हो। कुछ श्राचार्यों ने 'वामन' के इस सूत्र-'उपमानाक्षेपः० की व्याख्या 'उपमानस्य आक्षेपः सामर्थ्यादाकर्षणम्' रूप से भी की है। अर्थात् वहां उपमान का सामर्थ्य से अाकर्षण किया जाय, वह शब्दतः उपात्त न हो तो वहाँ श्राक्षेप-अलंकार कहा जायगा। इसके उदाहरण में वामन प्रयुक्त उदाहरण - "ऐंद्र धनुः पांडुपयोधरेण... " जो 'उपमानस्थापतः प्रतिपत्तिरित्यकि सूत्रार्थः" रूप से देते हैं। अस्तु, इस उदाहरण में भी ईर्ष्याकलुषित नायकांतर रूप उपमान आक्षिप्त है, वह वाच्यार्थ को ही अलंकृत कर रहा है। अतएव यह वामन-मतानुसार श्राक्षेप का उदाहरण हो सकता है, भामह-श्रादि के मत से नहीं । वे यहाँ समासोक्ति अलंकार मानते हैं, उसका विषय कहते हैं। अतएव 'श्राक्षेप' में उक्त बात मानने और करनेवाले भी इसमें वाच्य का चारुत्त्व- ही स्वीकार करते हैं, क्योंकि श्राक्षेप वचन-सामर्थ्य से ही प्रधानतया वाक्यार्थ प्रतीत होता है। वहाँ विशेष के बोधन की इच्छा से जो शब्दोपात्त रूप आक्षेप है, वही व्यंग्य विशेष का श्राक्षेप कराता है-वही उसका मुख्य काव्य- शरीर है। यहाँ चारुत्व के उत्कर्ष मूलक वाचय और व्यंग्य का प्राधान्य विवक्षित होता है, जैसे- "अनुरागवती संध्या दिवसस्तरपुरः सरः । अहो दैवगतिः कीटक् तथापि न समागमः ॥" - ध्वन्यालोक 1, १३ यहाँ नायक-नायिका के कथनोपकथन में व्यवहार रूप व्यंग्य की प्रतीति होने पर भी वाच्य का चारुत्व अधिक होने से वाच्य को ही प्रधानता विवक्षित है। __ इस –'अनुरागवती...."रूप उदाहरण में वामन-मतानुसार 'आक्षेप' और भामह-मतानुसार 'समासोक्ति अलंकार माने गये हैं तथा इस बात का खयाल करके ही ध्वनिकार ने यहाँ उक्त उभय-अलंकारात्मक उदाहरण दिया है, किंतु यहाँ श्राक्षेप है, या समासोकि यह विचारणीय प्रश्न नहीं है। यहाँ प्रकृत बांत तो इतनी-ही है कि अलंकार-स्थल में व्यंग्य सर्वथा वाच्य में गुणीभूत
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