पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३४६

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काव्य-निर्णय ३१६ प्राचार्य रुय्यक ने समासोक्ति का "श्रौपम्यगर्भा' नामक एक नया भेद और माना है । इस पर पंडितराज जगन्नाथ और विश्नाथ चक्रवर्ती कहते हैं- श्रौपम्यगर्भा समासोक्ति नहीं हो सकती, कारण-उपमा में केवल सादृश्य की प्रतीति होती है, व्यवहार को नहीं। केवल व्यवहार को प्रतीति में होने वाली समासोक्ति के गर्भ में उपमा नहीं हो सकती। दासजी ने समासोक्ति के "शुद्ध, अर्थात् व्यवहार (कार्य) की समता से, वाचक से--साधारण-साम्य से और श्लेष से तीन-ही भेद मान इनके क्रमशः उदाहरण दिये हैं।" समासोक्ति प्रथम उदाहरन जथा- आँनन में झलके सँम-सीकर, औ अलके -बिथुरी छबि-छाई । 'दास' उरोज घने थैहरें, छैहरें मुकतान की माल सुहाई ॥ नेन-नचाइ, लाचइकें लंक, मचाइ-बिनोद, बचाइ कुराई। प्यारी प्रहार करै कर-कंज, कहा कहों कंदुक-भाग-भलाई ॥ अस्य तिलक इहाँ कंदुक (लिंग-भेद सों) पुरुष जौन्यों जाइ है, सो ए सब काम (म्वकीया- नायिका के) बिपरीति के-से जाने जात हैं, ता ते 'समासोक्ति' है। पुनः उदाहरन जथा- सैसब-हति जोबन भयो, अब या तँन सरदार । छींनि पगँन ते दृघ्न दिय, चंचलता-अधिकार ।। वि०-"दासजी से चंचलता का अधिकार पा अति चंचल बनने वाले इस दोहे के साथ 'विहारी लाल' का यह नीचे लिखा दोहा भी बरबस याद श्रा जाता है- "अपने अंग के जॉन कें, जोबन-नपति प्रबींन । - तन, मन, नेन, नितंब को, बदौ इजाफा कींन ।" अस्तु विहारी लाल के इस दोहे में भाव के साथ अलंकारों-हेतुत्प्रेक्षा (अमरचंद्रिका-हरिप्रकाश), फलोत्प्रेक्षा ( रस-चंद्रिका ), काव्य-लिंग, रूपक और तुल्ययोगिता का बहुत सुंदर वर्णन है। पा०-. (का० ) झलकयो...। २. ( ३०.) विद.... ३. ( का० ) यो....(०) लरे...1 1. (३०) दिप....