३०२ काव्य-निर्णय अप्रस्तुत-प्रसंसा द्वितीय भेद-कारन-मुख कारज-कथन को उदाहरन जथा- जोति के गंज ते आधौ बगइ, बिरंचि रची वृषभान-दुलारी । आधौ रह्यौ सो ताहू ते माधौ लै, सूरज-चंद-प्रभाँन में डारी॥ 'दास' द्वै भाग किए उबरे के, तरयन में छबि एक की सारी। एक ही भाग ते तीन-हूँ लोक को, रूपवती-जुबतीन सवारी॥ अस्य तिलक इहाँ या कथा कारन ते कारज जो है नायिका की सोभा सो बरनी । वि०- "दासजी-द्वारा वर्णित यह छंद अप्रस्तुत-प्रशंसा का द्वितीय-भेद"-- "कान के मुख काज" ( कारण से कार्य-कथन ) और संस्कृतानुसार अप्रस्तुत- प्रशंमा के प्रथम भेद "कारण-निबंधना ( अप्रस्तुत कारण का वर्णन कर प्रस्तुत कार्य का बोध कराना ) का उदाहरण है । अर्थात् , नायिका से नायक को मिलाने रूप प्रस्तुत कार्य का वर्णन न कर नायिका के अति स्वरूपवती रूप अप्रस्तुत कारण का वर्णन कर--उसके सौंदर्य का बोध कराना है। अस्त, ठाकुर कवि-रचित यह छंद भी इस अलंकार का सुंदर उदाहरण है, यथा- "कोमलता कंज ते, सुगध सब गुलाबन ते, चंद ते प्रकास लीनों उदित उजेरौ है। रूप रति-मानन ते, चातुरी सुजॉनन ते, नीर निरयाँनन ते कौतुक निबेरौ है। 'ठाकुर' कहत ए मसाला विधि कारीगर, रचना निहारि क्यों न होत चित चेरौ है । कंचन को रंग लै, सगद लै सुधा को, बसुधा-सुख लूटि के बनायो मुख तेरौ है । अथ तृतीय भेद सामान्य-मुख ( मिस ) बिसेस को उदाहरन जथा- या जग में तिन्हें धन्य गिनों, जे सुभाइ पराए भले कहँ दौरें। आपनों कोऊ भलौ करै ता को, सदाँ गुन-माँ नि रहें सब ठौरें। पा०-१. ( का० ) (३०) (प्र०) में...। २. (३०) विरचित रज, वृषभान कुमारी। ३. (वा.)(प्र०)...फुमारी। ४. (प्र०) दुभाग...। ५. ( का०) (प्र.) । स० पु० प्र०) को...। (३०)...भाग कियो उपरे को...'६. (का०)() आपनऊ सो भलो करे...। ७. (का० ) (३०)(प्र०) माने...।
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