काव्य-निर्णय हों तो बड़बानल बसायो हरि-ही कों, मेरी- बिनती सुनानौ द्वारिकेस'-दरबार में । ब्रज की अहीरिनि' के असुबा बलित आइ जमुना जराति मोहि महानल-झार में ॥ * अस्य तिलक इहाँ "न्हात-सँमे ते ले के बड़बानल को जमुना सों अपनों जरिबौ आदि सब कारज जो कहे सो अप्रस्तुत हैं, गोपिन को बिरह कारन है सोई प्रस्तुत है, सो कह्यौ। वि०-"दासजी का यह छंद-उदाहरण, "अप्रस्तुत-प्रशंसा" का ( दाराजी- द्वारा माना गया ) प्रथम भेद-"कारज-मुख कारॅन कन०..." ( कार्य से कारण-कथन करने का-अप्रस्तुत कार्य से प्रस्तुत कारण के बोध कराने ) का है। व्याख्या, "अस्य तिलक' रूप में दासजी-द्वारा स्पष्ट है। गोपी-विरह-संताप की कितनी बढ़ी-चढ़ी यह उक्ति नहीं, 'अत्युक्ति' है, जिसकी प्रशंसा में कुछ कहा नहीं जा सकता । ब्रज से बहे ( उत्पन्न ) विशद असू यमुना-जल में घुल-मिल कर गंगा और गंगा-द्वारा सागर में मिलने के बाद उस ( समुद्र ) की तरंगों-द्वारा बड़वानल के पास पहुँचना और उसे जलाने लगना, अर्थात् "ब्रजांगनाश्रों का कृष्ण-वियोग-रूप प्रस्तुत कारण न कह उन ( ब्रजांगनाओं ) के अश्रु-मिश्रित जल से बड़वाग्नि के जलने का अप्रस्तुत कार्य का कहना- "कार्य-द्वारा कारण- कथन करना कितनी सुंदर उक्ति है कि वाह...। "इस इश्क्रो-भाशकी के मजे हम से पूछिये । दौलत लुटाई, रंज सहे, खो दिया सबाव ॥" रस-कुसुमाकर संग्रह-कर्ता महाराज ददुवा साहिब अयोध्या तथा "सूक्ति- सरोवर” के संग्रह कर्त्ता ला० भगवानदीन ने दासजी के इस छंद को "श्रआँसुवों" तथा अर्जुनदास केड़िया ने "भारती-भूषण" (अलंकार-ग्रंथ) में संस्कृतानुसार अप्रस्तुत प्रशंसा के द्वितीय भेद "कार्य-निबंधना (जहाँ अप्रस्तुत कार्य का वर्णन कर प्रस्तुत कारण का बोध कराया जाय) के उदाहरणों में संकलित किया है।" पा०-१. (का० ) (पु०) (भा० भू० ) मैं हौ... । २. (२० कु. ) ( सू० स० ) द्वारिका के" | ३. (का०) (प्र०) ( स० स०) (भा० भू०) अहीरिनी"। ४. (का०) (३०) (प्र.) (म० स०) (भा० भू० ) जराबै"। (सं० पु० प्र०). (२० क० ) सतावै...।
- कु० (१०) पृ० ४०,५८ । स० स० (भ० दी० ) पृ० ३७३,२ । भा०.
भू० (के०) पृ० १६७।