२६५ काव्य-निर्णय चंदन की रेख रही भाभा भबसेस सु तो, देखत बनत पै न कहत बनें रती। ल्याबती गुबिंद, भरबिंद की कली में राखि, __जौ न मकरंद - बीच डूबवे ते डरती ॥' अथ बिसेस अलंकार बरनन जथा-- अनाधार आधे औ एकै ते बह सिद्ध । एकै सब थल बरनिऐं, त्रि-बिधि 'बिसेसँन' बृद्ध ।। वि०-"जहाँ श्राधार के बिना प्राधेय को स्थिति विलक्षणता के साथ वर्णन की जाय, वहाँ 'विशेषालंकार' बनता है। विशेषालंकार तीन प्रकार का होता है। अस्तु, जहाँ ज्ञात अाधार के बिना अाधेय का (प्रसिद्ध अाधार के बिना श्राधेय की स्थिति का) वर्णन किया जाय तब वहाँ प्रथम विशेप और "जहाँ एक- ही वस्तु की अनेक स्थानों में एक ही समय स्थिति का वर्णन किया जाय तब वहाँ द्वितीय विशेष” तथा “जहाँ कोई कार्य करते हुए देवात अशक्य कार्य के भी हो जाने का वर्णन किया जाय," वहाँ तृतीय विशेषालंकार माना जाता है। ब्रज-साहित्य के अलंकार-प्रथो में प्रायः "पर्याय" और "विशेषालंकार" के उदाहरण मिले-जुले से मिलते हैं. क्योंकि इन दोनों में एक ही वस्तु की अनेक स्थलों में स्थिति का वर्णन किया जाता है, किंतु यह ठीक नहीं, पर्याय में एक वस्तु की स्थिति अनेक स्थलों में क्रमशः एक दूसरे के अनंतर वर्णन की जाती है तथा "विशेष" में वह एक-ही काल में कही जाती है-यहाँ एक काल में एक- ही स्वभाव से किसी प्राधेय की अनेक आधारों में स्थिति वर्णन की जाती है, "एकाल्मायुगपवृत्तिरेकस्यानेक गोचरा।" -काव्य-प्रकाश (संस्कृत) .३५ प्रथम बिसेस उदाहरन अनाधार ते श्राधेह जथा- (म, 'दाता, सूरौ, सुकबि, सेत फरें आचार । बिना देहहूँ 'दास' ए, जीवत' इहि संसार ॥ वि०-"प्रसिद्ध अाधार के बिना प्राधेय की स्थिति-वर्णन किये जाने को "प्रथम विशेषालंकार" का विषय माना गया है, अतएव यहाँ स्म से लेकर सुकवि- पा०-१. ( स० पु० प्र०) ( 0 ) सुभ...! २. (का० ) (३०)(प्र०) करें.... ३. (का० ) जीव तरहि.... ४. (प्र. ) ऐहि...। यथा-
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