पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३२९

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२६४ काव्य-निर्णय (छोटा ) वर्णन किया जाय, वहाँ "अल्प' अलंकार कहा गया है। यहां लक्षण के अनुसार, 'आधार' और 'श्राधेय' की अल्पता (छुटाई ) वर्णन की जाती है । कुवलयानंद ( संस्कृत ) में 'अल्प' स्वतंत्र अलंकार माना है, और अन्यत्र दासजी की भाँति "अधिक" के अंतर्गत । अतएव यह अलंकार पूर्व कथित 'अधिक' के द्वितीय भेद के विपरीत बनता है।" उदाहरन जथा-- 'दास' परम तँन' सुतन-तन, भौ परमान-प्रमाँन । तहाँ बसत' हौ साँवरे, तुम ते लघु को भाँन ।। कोऊ कहै करहाट के' तंतु में, कोऊ* परागन में अनुमाँनी। हूँ दि फिरे' मकरंद के बुंद में, 'दास' कहे जलजात न जॉनी ।। छॉमता-पाइ रमाँ है गई परजंक कहा करै राधिका रॉनी। कौल में दास निबास किए हैं, तलास किएँ-हूँ न पाबत प्रौनी - वि०-"दासजी के अल्प-अलंकार-लक्षण के साथ दिये गये उदाहरण- "छला छगुनियाँ-छोर कौ” के साथ किसी कवि को निम्न उक्ति भी अति अल्प है, यथा- "काहि बताबति मुद्रिके, काहि करति परनॉम । कंकन की परबी दई, तुम-विन या कह रॉम ॥" दासजी ने "कोऊ कहै करहाट के तंतु में०" वाला छंद अपने 'शृगार- निर्णय' में नायिका की “छामता" --( सूक्ष्मता= दुबली-पतली, कोमल ) के उदाहरण में भी दिया है । अतएव उक्त 'छामता' के साथ अन्य कवि का यह 'विरह निवेदन' रूप छंद अवश्य देखें । कितना सुंदर है, यथा- "एक हती खोंनी पे ऐते एतौ मौन ठाँन, भई अति दूबरो विरह - ज्वाल - जरती। पास धरौ चंदन सुबास-ही ते बाद ताप, हो तो जो समीर सौ उसासँन उसरती॥ पा०-१.(३०) लघु...। २. (सं० पु० प्र० ) तहाँ न बसिऐ सांवरे...। ३. (सं०- पु० प्र०) तनु...। ४. (३०) करहाटक-तंतु...। ५.( का० )(३०) (प्र०) काहू... ६. ( का० ) (३०) (०नि०) ददारी मकरंद...। ७.( का०) (१०) (प्र.) ग्यानी । ( नि०) जलजा-गुन ग्यांनी ।

  • नि० (भि० दा० ) १० १०६, ३२५ ।