पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३२०

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काव्य-निर्णय

निर्णय २८५ (बाल-अधर-आँख ) कहीं अधिक काले, अरुण और वाण से ( पैने ) है. फिर भी उन्हें-भादों कुहू को...'श्रादि को, उनके उत्कर्ष के कारण कल्पना किये गये हैं, जो वास्तव में नहीं हैं।' 'दासजी ने यह अलंकार रसगंगाधर और कुवलयानंद के अनुसार प्रथक् रूप से माना है। काव्यप्रकाश की टीका उद्योत्कार का कहना है कि इस अलंकार का विषय संबंधातिशयोक्ति के अंतर्गत श्रा जाता है, इसलिए इस ( उपमाति- शयोक्ति ) का प्रथक् वर्णन उचित नहीं, क्योंकि-- "मखतूल, नीलमनि, चंचरीक, सबकी उपमा को पेलें हैं। मुख-सरद-चद से लगी हुई क्या संबुल की-सी बेलें हैं। लहराती हुई नजर आई दिल में जहरों की रेले हैं। रुखसार-हेम के थालों पर, दो चढ़ी नागनी खेलें हैं।" कामिनियों के नेत्र-कमलों पर कवियों ने बड़ी-बड़ी उड़ाने भरी है, कलेजे निकाल-निकालकर रख दिये हैं। दो उदाहरण, यथा - "कंजैन-खंजन-गंजन हैं, अलि अंजन-हूँ मद-मंजन पारे । ए कजरारे, ढरारे, पियारे, बिसारे न जात बिसारे, बिस.रे.॥ अंचल-पोट भखारे में खेलत, तारे निहारे हैं चंचल-तारे। सोम-सुधा-सर के मधि डोलत, माँनों मीन भए मतवारे ॥" "ऐसे दीवाने हों, सर संग से फोड़ें अपना । कभी बादाम जो देखें तेरी प्यारी माँखें ॥" 'भमी-हलाहल - मद-भरे, सेत-स्याँम - रतनार । जियत-मरत-मुकमुक परत, जिहि चितबन इकबार ॥' सापहवातिसयोक्ति लच्छन जथा- जह दोजे गुन और को, औरहिं में ठहराइ । 'सापह्न ति-अत्युक्ति" तहँ', बनत हैं कबिराइ । वि०-'जहाँ और के गुणों को और अन्य में ठहरा दिया जाय, अपह्नव (छिपाने ) के लिये जहाँ अतिशयोक्ति की जाय (कही जाय ), वहाँ "सापह्व- वातिशयोक्ति' कहते हैं। पा०-१. (३०) अत्योक्तितिहिं." । २. (का०)"तिहिं । (प्र०) अतिशयोक्ति. सापन्दु तिहि"।