पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३१९

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२८४
काव्य-निर्णय

२८४ काव्य-निर्णय वि.-'यहे दासजी का उदाहरण 'संभावना' को लेकर अतिसै (अतिशय) उक्ति कही गयी है। यह सूक्ति, संस्कृत की- "असति गिरिसमस्या कजले सिंधुपात्रे, सुरवरतस्शाखा लेखनीपत्र मूर्वीम् । लिखितयदि गृहीत्वा शारदा सर्वकाले, ____ तदपि तव गुणानामीशपार न याति ॥" सूक्ति के सहारे, जरा-से हेर-फेर-'ईश के स्थान पर गोपाल,' को लेकर हुई है, फिर भी अपने बाँकपन में कम नहीं है। संभावना की पराकाष्ठा है। अथ उपमा-अतिसयोक्ति लच्छन जथा- बुधि-बल ते उपमान पै, अधिक-अधिकई होइ । सो' 'उपाँतिसै-जुक्ति है, 'प्रौढ-उक्ति' है सोइ ।। वि०-'जहाँ बुद्धि-बल से उपमान पर अधिकाधिक बल (जोर ) दिया जाय, अर्थात् उत्कर्ष के जो कारण न हों उन्हें भी कारणों की कल्पना की जाय, तब वहाँ 'उपमातिशयोक्ति' अथवा 'प्रौढोक्ति' कहा जाता है। प्रौढोक्ति में उक्ति प्रौढ़ होती है-बढ़कर कही जाती है। यहाँ बढ़ाकर कहने के लिये उत्कर्ष के अहेतु को उत्कर्ष का हेतु कहा जाता है । किसी वस्तु के उत्कर्ष-वर्णन में जो हेत न हो उसे भी हेतु मानकर वर्णन किया जाता है, जैसा दासजी के निम्न- लिखित उदाहरण में । उदाहरन-जथा - 'दास' कहै लसैं भादों-कुहू की, अध्यारी-घटा-घन-से कचकारे।। सूरज-बिंब में ईगुर बोरे, बँधूक-से हैं अधरा अरुनारे ॥ बाड़वाँच ते ताए-बुझाए, महा विष के जम जी के सँवारे। मारन-मंत्र से बीजुरी-सॉन, लगाए नराच से नैन तिहारे ॥. वि०-'यहाँ दासजी-द्वारा वर्णित कामिनी ( नायिका ) के कच ( बाल ), उसके अरुणारे अधर और नयनों का वर्णन है, उत्कर्ष के तद्तद कारण- बाल, अधर और नयनों के वे नहीं जो कहे गये हैं, अपितु उनसे उपमान पा०-१. (सं० पु० प्र०) ( का० ) (३०) तब उपमा-अत्युक्ति है। २. ( का०) (३०)(प्र०) लगे। ३. ( का० ) बाड़ौ की आंच ते ताप " । (वे. ) बाड़ो कि आंच । (म० मं०) बाड़ी की श्रांच के ताए-बुझाए । ४. (का०) (प्र०) लगे ये" ।

  • म० मं० द्वि० कलिका (अजा० ) १०६,१७ ।