पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३१५

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२८०
काव्य-निर्णय

२८० काव्य-निर्णय 'दास' ये धारा कों छजत' जब-जब, तब-तब- वे हूँ सब असून की धारा कों छजत' हैं। या कों तू कँपाइ के भँजावत है ज्यों-ज्यों, त्यों-त्यों, वे हू काँपि-काँपि ठौर-ठौरन भजत हैं ।। पंचम अत्युक्ति-लच्छन बरनन जथा- जहाँ दीजिए जोग५ कों, अधिक जोग' ठहराइ । अलंकार 'अत्युक्ति' तह, बरनँत है कबिराइ॥ वि०-"जहां योग्य को अधिक योग्य ठहराया बताया जाय, वहां "अत्युक्ति" अलंकार कहा गया है। कोई-कोई प्राचार्य शौर्य तथा औदार्य-आदि के अत्यंत मिथ्या-पूर्ण वर्णन होने पर भी इस अलंकार को मानते हैं । साथ-ही- श्रौदार्य, प्रेम, सौंदर्य, विरह-त्रादि की अनेक अत्युक्तियाँ कही-सुनी गयी हैं। काव्य-प्रकाश (संस्कृत) में "अत्युक्तिअलंकार" नहीं माना गया है, पर उसकी टीका-'उद्योत' कार का मत है कि यह 'उदात्त'-अलंकार के अंतर्गत कहा जा सकता है । कुवलयानंद के कर्ता का यह अभिमत है कि जहाँ "ममृद्धि का अतिशय वर्णन किया जाय वहां 'उदात्त' और जहाँ शोर्यादि का अतिशय वर्णन हो वहाँ "अत्युक्ति-अलंकार मानना चाहिये । सम्यक् रूप से देखा जाय तो अत्युक्ति का अतिशयोक्ति वा उदात्तालंकार से पृथक् वर्णन करने का कोई औचित्य प्रतीति नहीं होता, अपितु दासजी को भाँति उसे अतिशयोक्ति के दायरे में-ही रखना उचित प्रतीत होता है।" उदाहरन जथा- एती अनाकँनी कीजै कहा, रघु के कुल में' को कहाइ के नाइक । थापनों मेरौधों नॉम बिचारो, हों दीन' 'अधीनतुदीन को दाइक ।। हों तो अनाथ अनार्थंन में, इक' तेरौ-ई नॉम, न दूजौ सहाइक। मंगँन तेरे" के मंगँन सौ, कलपद्म आज है माँगिवे लाइक । ___पा०-१. (का०) (३०) (प्र०) सजति, (सजत).... २. (का०) (३०) (प्र०) वै सकल...। ३ (का०) (३०) (प्र०) सजत...। ४. (कां०) (प्र०) कपि कॅपि.... (३०) कपि- कंपि...। ५.-६. ; (का०) (३०) (प्र०) जोग्य...। ७. (३०) तिहि...। म. (सं० पु० प्र०) (का०) (३०) (प्र०) कीवो...I ६ (प्र०) . कुल बीच कहाइ...। १०. (३०)...विचारि हो... । ११. (का०) हीन । १२. (का०) मैं तो...। (३०) मैं हों...। १३. (का०) (२०) तजि...। १४. (का० ) तेरी को मंगन...1 (३०) तरे यों मंगन...।

  • स० स० (भ० दी०) पृ० ४०१. ३७ ।