पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३१४

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काव्य-निर्णय

काव्य-निर्णय २७६ पुनः उदाहरन जथा-- चकि-चोंकती चित्र-हु के कपि सों, जकि कूर-कथाँन सुनें जो डरै। सुनि भूत-पिसार्जुन की चरचाँन, बिमोहित है अकुलाइ परे ।। चलिबौ सुनि पाँइ दुखें तँन धाँम' के, नॉम-हिं सों सम-भूरि भरै । सोसीय चरों बँन कौ चलिबौ, हिय-रे धिग तू न अजों बिहरै। वि०-“यहाँ भी वही बात है, 'जो' सीया ( श्रीजनक-नंदिनी जानकी ) चित्र-लिखित कपि ( बंदर ) के देग्वने से एकाएक चोंक पड़ती हैं, कर-कथाओं के सुनने मात्र से-ही डर जाती हैं, भूत-पिशाचों की चर्चा सुनकर-ही जो विमोहित होकर अकुला जाती है, घर में हो तनिक चलने का नाम सुनकर सम से (जिनके) पाव दुखने लगते हैं, वही वन को गमन करना चाहती है... १ रे हृदय, तुझे धिक्कार है ( जो यह देखकर भी) नहीं फटता...। इसे चपलातिशयोक्ति की माला भी कह सकते हैं।' चतुर्थ अतिकमातिसयोक्ति लच्छन जथा- अतिक्रमाँतिस जुक्ति' जहँ, कारज-कारन साथ । भूपरसत हैं साथ-ही, तो सर औ अरि-माथ ।। वि० - "जहां कार्य-कारण दोनों एक काल ( समय ) में ही साथ-साथ हों, वहाँ 'अतिक्रमातिशयोक्ति' अलंकार बनता है, जैसा लक्षण-रूप दोहे की अर्धाली में--'सर (वाण) और अरि (शत्र) माथ ( मस्तक ) साथ-साथ पृथ्वी का स्पर्श करते हैं।' अक्रम का शब्दार्थ है-- 'क्रम-हीन'। अतएव इस अलंकार में कार्य-कारण का उचित क्रम-श्रागे-पीछे नहीं रहता, दोनों साथ-साथ ही कहे जाते हैं।" द्वितीय उदाहरन जथा-- राम, असि तेरी अस बैरिन के कीने हाल, ताते दोऊ काज इक साथ-हीं सजत हैं। ज्यों ही ये कोस को तजति है दयाल त्यों-ही- वे ह सब निज-निज कोस को तजत हैं। पा०-१. (३०) घाम... । २. ( स० पु० प्र०) ( का० )(३०) तिहि । ३. (प्र०) तेहि सोंप चौ .. । ५. (प्र०) हियरौ । (रा० पु. का० ) हियरा । ६. (का० )(३०) (प्र. ) उक्ति · । ७. (३०) जा... | २. (का०) (३०) (प्र.) अरु .. 1 E. ( का० ) (३०)(प्र.) को .. । १०. (का० ) (३०) (प्र.) कीन्हों। ११ (३०) हाथ ..।