२७८ काव्य-निर्णय 'दास' अति गति को चपलता कहाँ लों कहों, भालु-कपि-कटक अचंभे जकि ज्वै रह्यो। एक छिन बार-पार लागी पाराबार' के, गगन-मध्य कंचन-धनुष ऐसौ ब्बै रह्यौ ॥. ___ अस्य तिलक इहाँ चपलातिसै-उक्ति में उपमाँ को अंगागी-भाब संकर है। वि०-"दासजी के इस छंद को रस-कुसुमाकर-रचयिता ने 'स्थायी-भावांतर्गत 'आश्चर्य के उदाहरण में संकलित किया है ।" श्राश्चर्य वा विस्मय अद्भुत- रस का स्थायी-भाव है, यथा- "जाको थाई 'आचरज', सो उदभुत-रस गाव । असंभबित जेते चरित, तिन को लखत बिभाव ॥" -जगद्विनोद ( पद्माकर ) अतएव जिस रम के अास्वादन से अाश्चर्य प्रकट हो, वहाँ 'अद्भुत रस' कहा जाता है। इसके संचारी-हर्ष, शंका वितर्क, मोह, श्रावेग, स्थायी - विस्मय ( आश्चर्य ) इत्यादि.."हैं, 'जो चौथे उल्लास' में लिखे जा चुके हैं । इस अतिशयोक्ति के उदाहरण में 'रत्नाकर' बा० जगन्नाथदास का निम्नलिखित छंद भी सुंदर है, यथा-- "बोध-बुधि-बिधि के कमंडल-उठावत-ही, धाक सुर-धु नि की धंसी यों घट-घट में । कहै 'रतनौकर' सुरासुर ससंक सबै, बिबस बिलोकत लिखे-से चित्रपट में ॥ लोकपाल दौरन दसों दिसि हहरि लागे, हरि लागे, हे न सुपान-अरबट में । त्रसँन नदीस लागे, खसँन गिरीस लागे, ईस लागे कसँन फनींस कटि-तट में ॥" यह ध्यान रहे, चपलतिशयोक्ति 'कारण के ज्ञान, अर्थात् देखने-सुनने मात्र से ही तत्क्षण कार्य के होने के वर्णन में होती है, अन्यत्र नहीं।' पा०-३. ( का० ) (३० ) (प्र० ) अचमा .. । ४. (र० कु. ) बारापार को... ।
- र० कु० (१०) पृ० २०,३७ ।