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काव्य-निर्णय

काव्य-निर्णय २७५ वि०-"दासजी का यह उदाहरण प्रथम “संबंधातिशयोक्ति (जहाँ असं- बंध वस्तुत्रों में संबंध दिखलाते हुए अतिशयोक्ति की जाय) का है । द्वारिका के कलशों ( भवनों के कलसों ) का स्वर्ग-लोक के अमरों के श्रागारों से कोई : संबंध नहीं है, यह इस लोक को विभूति है और वह स्वर्ग-लोक की. फिर भी संबंध दिखलाकर उनको ऊँचाई को अतिशयोक्ति की गयी है...इत्यादि...।। ____एक बात और, वह यह कि इस संबंधातिशयोंक्ति के दोनों भेदों के प्रति बा० ब्रजरत्न दास ( अलंकार-रत्न ) का कथन है कि "कुछ लोगों ने योग्य को अयोग्य तथा अयोग्य को योग्य कह कर संबंधातिशयोक्ति के भेद माने हैं, पर वे ठीक नहीं जात होते...।" कारण कुछ नहीं लिखा है, किंतु ब्रजभाषा में संबंधा- तिशयोक्ति के विषय ( लक्षण ) के प्रति प्रायः सभी अलंकार-प्रथ-रचरिताओं ने इसी 'योग्यायोग्य' को कसोटी ठहराया है। श्री यशवंत सिंह जी के 'भाषा. भूषण' का श्रादेश संबंधातिशयोक्ति-व्युत्पत्ति के साथ दिया जा चुका है। अन्य, यथा- "जहँ अजोग है जोग में, जहँ अजोग में जोग । संबंधातिसयोक्ति यै, भाँखत सब कबि लोग ॥" - ललित लला० ( मतिराम ) "संबंतिधासयोक्ति बरने भजोग-जोग-जोग में अजोग भेद दूसरौ बिसेख्यो है ॥" --क० कं० भ० (दूलह) संबंधातिसयोक्ति सु जाँनों, जहँ अजोग में जोग बखाँनों। दूजी ताहि कहति कबि लोगू, जहाँ जोग में भनँत प्रजोगू॥ --पद्मा० ( पद्माकर ) इस सूची में आधुनिक अलंकार-ग्रंथ रचयिता भी जैसे-पं० जगन्नाथ प्रसाद

  • भानु' (काव्य-प्रभाकर ), कन्हैयालाल पोद्दार ( कादकल्पद्रुम-अलंकार-मंजरो ),

अर्जुनदास केड़िया ( भारती-भूषण ) इत्यादि..., भी यही व्युत्पत्ति (विषा) मानते हैं । संस्कृत में भो- "सबंधातिशयोक्तिःस्यादयोगेयोगकल्पनम् । "योगेऽपयोगः संबंधातिशयोक्तिरितीर्यते ।" -श्रादि सूत्र “योग्यायोग्य" के समर्थन-रूप में मिलते हैं।" अस्तु, दासजी के इस छंद को "रस-कुसुमाकर" रचयिता महाराज प्रतापसिंह ददुवा साहिब अयोध्या ने "अद्भुत-रस" के उदाहरण में संकलित किया है।