पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३०९

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२७४
काव्य-निर्णय

२७४ काव्य-निर्णय कैसें घनस्याम वी बॉम बँन - धाम भाब, घाम के लगे ते कॉम-लता जाति पिचिकी। अति सुकमारि सिसकति भार - हारन के, बारन के भार कैउ बार लंक लचिकी ॥ कविवर लच्छीराम ने भी यही बात और भी सुदर रीति से कही है, यथा - "अंग - राग धरत मरोरति है भौंहें, पग जाबक रचत संक हियरें अपार-सी। सीबी कर लाजैन - लपेटी बाइ-मंद-हू में, आनन अमंद - श्राब अपर में मार-सी॥ कवि 'लछिराम' स्याँम-सुंदर तिहारी सोंह, बै सुकमारि कैसें कमल के हार-सी। बार - घन - भारन सों, उरज • पहारेंन सों, लंक परजंक - हू पै लचकति तार • सी ॥" पुनः उदाहरन अजोग ते जोग की कलपना जथा- कोकन अति सब लोक ते, सुख-प्रद रॉम-प्रताप । बन्यों रहत जिन दंपतिन, आठौं पैहैर मिलाप ।। पुनः उदाहरन जथा- कंचन - कलित नग लालँन बलित सोंध,' द्वारिका ललित जा की दीपति अपार है। ताकी बर' बल्लभी बिचित्र अति ऊँची . जासों निपटै नजीक सुरपति को प्रगार है॥ 'दास' जब-जब जाइ सजनी सयाँनी संग, रुकमिनि रॉनी तहँ करति बिहार है। तब - तब सची, सुर• सुंदरीन संग लहि, कल्पतरु - फूल लै - लै देति उपहार है।।* पा०-१. ( का०) (३०) (प्र०) सौध । २. (सं० पु० प्र०) (वे.) ताके पर...! ३. ( सं० पु० प्र० ) ( का० ) करु लै, कल्पतरु-फूल लै मिलत उपहार.... (वे.)... सुंदरी निकर लै कल्पतरु फूल लै मिलत... (प्र.)-सुदरीन संग में कल्पतरु फूल...! (र० कु० )...सुदरी निकर लै कल्पतरु फूलहि मिलत उपहार है।

  • र० कु. (अ.पृ० १५८, ५० |