पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३०८

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काव्य-निर्णय

काव्य-निर्णय २७३ पुनः उदाहरन जथा- घाँघरे' झीन-सों, सारी महीन-सों, पीन-नितंबन-भार उठे' खचि । 'दास' सुबास सिंगार-सिँगारत, बोमन-ऊपर-बोझ उठे मचि ।। सेद' चलें मुख-चंद ते च्वै, डग द्वक धरें महि फूलन सों सचि । जात है पंकज-पात -बियार सों, वा सुकमारि को लंक लला लचि ।।. अस्य तिलक (प्रथम उदाहरन में ) कुचन को अंग में माहयौ (समाइबौ=समानों) जोग है, (4) अमाइबौ ( नहीं समानों ) अजोग कयौ ( अरु या सवैया में ) नायिका चलिबे जोग है, (पै) कह्यौ न चलि सकेगी, सो जोग-बोंत में अजोग की कलपना करी। वि०-"दासजो ने इस छंद में "घाँघरे" के साथ महीन-हलकी-फुलकी पतलो साड़ी का वर्णन किया है। ब्रज में अथवा अन्यत्र लैंहगे (घांघरे) के साथ साड़ी नहीं पहनी जाती, अपितु "अोढ़ना" अोढ़ा जाता है। अस्तु, दामजी अोढ़ने का सारी (साड़ी) जैसा दो अक्षर वाला पर्यायवाची शब्द न पाकर झीन, महीन और पीन की बहिया में बह गये-से मालूम देते हैं। दासजी ने यह छंद - उदाहरण. अपने शृगार-निर्णय' में कुछ पाठ-भेद के साथ नायिका को सुकुमारता-वर्णन में भी दिया है--उद्ध त किया है । सुक- मारता-नज़ाकत के वर्णन में अकबर साहिब-इलाहाबाद का एक शेर बहुत अच्छा है, जैसे-- "नाज़ कहता है कि जे. बर से हो तजईने-जमाल । नाजुकी कहती है, सुर्मा भी कहीं बार न हो।" दासजी के उक्त उदाहरण के साथ यह निम्नलिखित किसी कवि की उक्ति भी पठनीय है- "लहलही लहरें लुनाई की उदित अंग, उचके कुचन कैसी कंचुकी यों गचिकी। मंद पग धरति मरू के गयंद - गति, चंद-मुखी चाँदनी चकित चाह सचिकी ॥ पा०-१. ( सं० पु० प्र०)(का० )(३०)(प्र.) (१०नि० ) घाँधरौ...। २. (शृ नि०) सी...। ३. (०नि०) उठ्यो । ४. ( सं० पु० प्र०) हचि । ५. (का०) (३०) (प्र०) स्वेद...। ६. ( नि०)...चंदन च्चै । ७. (प्र०) मग...। . ( . नि० ) बारि....

  • ०नि० (मि० दा० ) पृ०१६, २५३ । ७० ना० मे० ( मी०) पृ० २११, ११ ।