काव्य-निर्णय २६६ "अतिसयोक्ति' है चारि विधि, मंमट-कथन-प्रकार । बरनत 'चिंतामनि' सुकवि, निज मति के अनुसार ॥" पर 'भाषा-भूषण" में जसवंत सिंह जो ने-"रूपकाति०, सापन्हवाति०, भेदकाति०, संबंधाति०, असंबंधाति०, जिसे "जोग से अजोग" रूप में वर्णन किया गया है, के अनंतर अक्रमाति०, चपलाति०" और "अत्यंताति० रूप बाट प्रकार-भेद कहे हैं । इसी प्रकार कवि मतिराम (ललित-ललाम) ने भी पाठ प्रकार की-रूपकाति० सापन्हवाति, भेदकाति०, संबंधाति०, संबंधाति० (द्वितीय), अक्रमाति०, चप- लाति० और अत्यंताति." मानी है । दूलह कवि (कविकुल-कंठाभरण) भी आपके अनुगामी हैं और अंतिम रीति कालिक कवि पद्माकर भी इसी पथ के पथिक हैं । अतिशयोक्ति का विषय अति व्यापक है। शब्दार्थ की जो भी विशेषताएँ हैं, वे सब इसके अाश्रित मानी गयी हैं। इसलिये अतिशयोक्ति के विभिन्न चमत्कारों की विशेषताओं के कारण इस अलंकार के विभिन्न नाम निर्दश किये गये हैं, किंतु जहाँ किसी चमत्कार-युक्त युक्ति में किसी विशेष अलंकार का नाम नहीं दिया गया है, तो वहाँ अतिशयोक्ति कही जा सकती है । इसलिये-ही प्राचार्य दंडी (संस्कृत) ने ---"संदेह, निश्चम, मीलित और अधिक'-अादि अनेक अलंकार प्रथक्-प्रथक् निर्धारित न कर अतिशयोक्ति के अंतर्गत-ही लिखे हैं । अतिशयोक्ति के उपसंहार में दंडी कहते हैं- "अलंकारांतराणामप्येकमाहुः परायणम् । वागीशमहितामुक्तिमिमामतिशयाह्वयम् ॥" -काव्यादर्श (स०) २२० अर्थात् "अतिशयोक्ति" अधिकाधिक अलंकारों की अाश्रयभूत होने के कारण 'वाचस्पति'-द्वारा पूजित है।" अथ प्रथम भेदकातिसयोक्ति लच्छन बरनन जथा- 'भेदकातिस' उक्ति जहँ सुभा-मई सब बात । जग ते यै कछु और-हीं सकल ठौर कहि जात ॥ वि.-"दासजी ने भेदकातिशयोक्ति के लक्षण में-"जगत से भिन्न कुछ और ही कहने" को कहा है। यह लक्षण अव्यापक है, अस्तु "उपमेय के अन्यत्त्व वर्णन में जहाँ अभेद रहते हुए भी भेद प्रकट किया जाय-जिनमें पा०-१.(सं० प्र० प्र०) (का० ) सुबह मही सब...! (.३० ) सुन हम-ही सब.... (प्र.) मग में है सब... (प्र-२) के तहँ जु मही।
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काव्य-निर्णय