पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३०३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२६८
काव्य-निर्णय

२६८ काव्य-निर्णय अलंकाराचार्य विभूति-पूर्ण समझते थे । दंडी ने इन दोनों मान्यताओं को उदात्त- निरूपण रूप में शीर्ष स्थान दिया और बाद में भी यही द्विधा प्रतिपादित होती रही । मम्मट ने इसे स्वीकार नहीं किया, अपितु उद्भट की उदात्त-परिभाषा का अनुगमन किया, क्योंकि उदात्त में जो वस्तु-वर्णन उन्हें अभिप्रेत थी वह आरोपित वस्तु-वर्णन है। इसलिये स्वभावोक्ति से-जिसमें यथा-वद वस्तु का वर्णन हुआ करता है, उससे पृथक् है तथा 'भाविक' से भी जिसमें यथावद् वस्तु वर्णन कवि-हृदय के संवाद से प्रकाशित हुआ करती है-भिन्न है । अतिशयोक्ति-लक्षण के प्रति दासजी ने संस्कृत के अन्य अलंकाराचार्यों के साथ मोटे रूप में-'अत्यंत सराहनेवाली' उक्ति को कहा है। संस्कृताचार्यों ने इस स्थूल-लक्षण के साथ 'लोक-मर्यादा को उल्लघन करनेवाली उक्ति' और जोड़ दिया है, क्योंकि अतिशय का शब्दार्थ--'अतिक्रांत' ( उल्लङ्घन ) है । कोई-कोई अतिशयोक्ति का अर्थ-'लोकोत्तर' उक्ति भी मानते हैं। ऐसा वर्णन, जो संसार की सामान्य बातों का उल्लघन कर गया हो, 'लोकोत्तर' कहलाता है । अतिक्रांत का भी यही ध्येय वा कथन है। अतएव जहाँ प्रस्तुत को अत्यंत प्रशंसा के लिये लोक-सीमा का उल्लघन कर कोई 'उक्ति' कही जाय, अर्थात् जहाँ विषय (अपस्तुत, या उपमान) विषयी (प्रस्तुत, वा उपमेय) को निश्चित रूप से अपने में लीन कर एकदम अभेद-प्रतीति होने लगे- उसका अध्यवसाय हो जाय, तो वहाँ 'अतिशयोक्ति' कही जाती है और इसके मुख्य भेद हैं- "रूपकातिशयोक्ति, भेदकातिशयोक्ति, संबंधाति- शयोक्ति, असंबंधातिशयोक्ति तथा कारणातिशयोक्ति ।" दासजी ने इन नाम और क्रम में उलटफेर कर 'अतिशयोक्ति' के प्रथम-"भदकातिशयोक्ति, संबंधातिशयोक्ति," संबंधातिशयोक्ति के दो-“योग्य से अयोग्य की तथा अयोग्य से योग्य की कल्पना", भेद कहते हुर "चपलातिशयोक्ति, अक्रमातिशयोक्ति" और "अत्यंतातिशयोक्ति"-आदि कह कर, तदनंतर---"संभवनातिशयोक्ति, उपमातिशयोक्ति, सापन्हवातिशयोक्ति,रूपकातिशयोक्ति" तथा "उत्प्रेक्षातिशयोक्ति आदि बारह भेद कहे हैं। संस्कृत-अलंकाराचार्यों ने जैसा पूर्व में उल्लेख हो चुका है । अतिशयोक्ति के प्रथम- "रूपकाति०, भेदकाति०, संबंधाति०" और "कारणाति." रूप पाँच भेद मान कर फिर "रूपकातिशयोक्ति" के मेद "शुद्ध" तथा “सापन्हव", संबंधातिशयोक्ति के भोद "संभाव्यमाना" व "निर्णयमाना", एवं कारणातिशयोक्ति के भेद "अक्रमाति०, चपलाति. तथा अत्यंतातिशयोक्ति भेद भी कहे हैं । ब्रजभाषा के श्रादि-रीति-थकार 'चिंतामणि' ने-अपने "कवि- कुल-कल्पतरु" में इस (अतिशयोक्ति) के चार प्रकार ही माने हैं, यथा-