पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३०२

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अथ ग्यारहवाँ उल्लास: अथ अतिसयोक्ति-आदि अलंकार बरनन जथा- 'अतिसयोक्ति' बह भाँति की, और 'उदात्त' तहँ लाइ । 'अधिक', 'अल्प' 'सबिसेसनों', पाँच भेद ठहराइ॥ __ अतिसयोक्ति-भेद कथन जथा-- जहँ अत्यंत सराहिए, सो अतिसोक्ति' कहत । 'भेदक' 'संबंधौ' 'चपल', 'अक्रमाति अत्यंत ।। वि.--"दासजी ने इस ( दशवें) उल्लास में-अतिशयोक्ति' और उस (असिशयोक्ति) के विविध भेद' -भेदकातिशयोक्ति, संबंधाति- शयोक्ति, चपलातिशयोक्ति, अतिक्रमातिशयोक्ति-आदि, भेदाभेदों के साथ वर्णन करते हुए 'उदात्त', 'अधिक', 'अल्प' और 'विशेष'- अलकारो का कथन किया है। संस्कृत-अलकाराचार्यों ने अतिशयोक्ति' को अभेद प्रधान अध्यवसायमूलक-अलकार माना है और 'उदात्त' को वर्णन वैचित्र्य-प्रधान तथा 'अधिक', 'अल्प' और 'विशेष' को-विरोधमूलक अलकार । अतिशयोक्ति के स्वरूप तथा भेद-निर्माण में प्रथम सर्वोत्कृष्ट स्थान 'उदभट्' का है, क्योंकि भाभह और दंडो-द्वारा अतिशयोक्ति लक्षण का वह निखरा हुआ स्वस्थ स्वरूप नहीं मिलता जो उद्भट ने प्रस्तुत किया है। प्राचार्य मम्मट ने अतिशयोक्ति का उदभट्-जन्य स्वरूप ही अपनाया है, पर अपनी धारणा- “निर्गीयाध्यवसानंतु प्रकृतस्त्र परेणयत्"--रूर अपने रंग में रंगकर...। बाद के अलकाराचार्यों ने इसे ही हृदय से अपनाया और अतिशयोक्ति को रूप-रेखा अब यही मानी जाने लगी, जो पं० राज जगन्नाथजो कृत रसगंगाधर के अति- शयोक्ति-लक्षण से स्पष्ट है, यथा- "विषयणाविषयस्य निगरणमतिशयः तस्योक्तिः- अतिशयोक्तिः ।" इसी प्रकार 'भामह'-द्वारा निर्मित 'उदात्त' अलंकार' के स्वरूप में भी महा- पुरुषों की वही महत्ता प्रतिपादित होती है, जिसे उनके समकालीन अज्ञात-नामा पा०-१. ( का० ) ( 0 ), उद्दातौ तहँ ल्याइ । (प्र०), अरु उदात... | २. (का०) (वे.) (प्र०) पच" | ३. ( का०)(३)(प्र०) अतिसयोक्ति सुकहत । ४. (का०) भाकमाति...।