पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२९९

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२६४ काव्य-निर्णय ग्रहण अवश्य किया जाता है । भ्रांति में भ्रम होता है, शुद्ध वा प्रथम उल्लेख में नहीं, किंतु यहाँ सूक्ष्म रूप से देखा जाय तो इसमें भ्रम का समावेश अस्पष्ट रूप से-ही सही, पर रहता अवश्य है। जैसा कि दासजी के नीचे लिखे 'प्रथम' उदाहरण में । यहाँ नायिका एक ही है, पर उसे देखनेवाले अपने-अपने अनुसार भ्रम-वश कई रूपों में देखते हैं। श्रीमद्भागवत के दशम-स्कंध में भगवान श्री कृष्ण के मथुरा आने पर लोगों ने उन्हें क्या-क्या समझा, यह उल्लेख से अलंकृत अत्युत्तम उक्ति है, यथा- "मल्लानामशनिणां नरवरः स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान्, ____गोपानां स्वजनोऽसतां तितिभुजां शास्ता स्वपित्रोः शिशुः । मृत्यु जपतेर्विराडविदुषां तत्त्वं परं योगिनाम् , वृष्णीनां परदेवतेति विदितो रंगं गतः साग्रजः ॥" -दशम पूर्वा० ४३, १७ "मल्ल ब्रज जाँने, श्री नर जाँने नर-बर, नारि जाँने यही कॉम-मूरति रसाल है। गोप जाँने सुजैन, सु जादव कुल-देव जाँने, असन नृपति जाँने साँसता कराल है। पंडित बिराट जाँने, जोगी पर-तत्त्व जाँने, रग-भूमि राँम-कृस्न गएँ ऐसौ हाल है। नद जाँने बालक, 'बिद' प्रतिपाल जाँने, साल सत्रु-बंस जाँने, कंस जाँनों काल है।" अस्य उदाहरन एक में बौहतन को बोध जथा- पीतम प्रीति-मई अँनुमाँने,' परोसिन जॉन सुनीतिन सों ठई। लाज-सनी बड़ी निभनी, बर नारिनि में सिरताज गँनी गई । राधिका कों ब्रज को जुबती कहैं याहि सुहाग-सँमूह दई दई। सौति" हलाहल-सी वी कहैं, सखी कहैं सुंदरि-सील-सुधा-मई ॥* पा०-१. ( का० ) (३०) (० नि० ) उनमानें... | २. ( नि०) सुनी तिहि सों... | ३. ( का० ) (३०) (प्र०) सनी है... । ४. (३०) वाही"। ५. (का० ) सौती" । ६. ( का० ) (३०)(प्र. ) सौ ती" । ७. (का०) (३०) (प्र.) श्री-सखी कहैं...।

  • नि० (भि० दा० ) पृ०-८८ ।