२६० काव्य-निर्णय हेरन दै नेक प्रॉन - प्रीतम - मुखारबिंद, हा-हा लाज आज तेरे पाँइन परति हों॥" "बिधि कोन-हूँ बासर को बितबै, मैन नाह की चाह लगी है नई । कवि भानु' सजाइ सँमेंटति सेज, सजावति फेरि सुगंध मई ॥ कभू दीप-कपूर जराबै बुझाइ के, फेरि जराबति रंग-रई। परी लाज-मनोज के मोह तिया, जुग चुंबक-बीच की लोह भई ॥" "इस अंदाजे-हया से और चोरी खुल गर्य। दिल की । कहा था उन से किसने ? झपकर तिर्थी नज़र कर लो ॥" अथ उत्प्रेच्छा-बाचक रूपक जथा- धूसरित धूरि मानों लिपटी बिभूति भूरि, माँती माल माँनों लगाऐं गंग गल' सों। नील-गुन गूंथे मनिबारे आभरॅन कारे, डोंरू कर धारे जोरि द्वैक उतपल सों। बंक बघ-नखुना बिराजै उर' 'दास' मनों, ___बाल-बिधु राख्यौ जोर देके भाल-थल सों। ताकें कमला के पति गेह जसुधा के फिरें, छाके गिरिजा के ईस माँनों हलाहल सों। अस्य तिलक इहाँ 'मॉनों' उत्प्रेच्छा-वाचक ते रूपक प्रत्यछ है। वि०-"वेंकटेश्वर प्रेस बंबई से प्रकाशित प्रति' में दूसरी लायन (पंक्ति) तीसरी के स्थान पर और तीसरी दूसरी के स्थान पर है।" अथ अपन्हुति बाचक रूपक जथा- धाबें धुरवारो, नँदवारी, असवारी किरें। कारी-कारो घटा ना मतंग मद-धारी हैं। पा०-१. ( का० ) (३०)(प्र०) लपटी .. | २. (३०) (प्र.) जल"। ३. (का०) (३०) गूदे | ४. ( का० ) (३०) उर...। ५. (का०) (सं० पु० प्र०)(३०) विमल बधनहाँ...। (प्र०) बंक बघ नहियो...। ६. (सं० पु० प्र०) रसमाल मानों" । ७. (० पु० प्र०) (३०)द्वै " | . (का० ) (३०)(प्र. (सं० पु० प्र०) की है। ६. (सं० पु० प्र०) (का०) (प्र०) है।
पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२९५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।