पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२९२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय २५७ श्रस्तु, ऐसी अवस्था में यहाँ 'व्यतिरेक' अलंकार क्यों न माना जाय १ क्योंकि 'उपमान को अपेक्षा उपमेय में कुछ अधिक उत्कृष्टता दिखलाना-ही 'व्यतिरेक' है और यही ध्येय वा लक्ष्य 'अधिकारूढ वैशिष्टय-रूपक' का भी है । और यदि यह कहा जाय कि उक्त ध्येय (लक्ष्य) इस अलंकार का नहीं है, तब इस प्रकार के नये भेदों की आवश्यकता ही नहीं रहती, वहाँ शुद्ध रूपक मात्र है, क्योंकि उपमेय पर उपमान का आरोप-ही 'रूपक' है और उपमानोपमेय में किसी गुण का प्रकृत्या अधिक वा कम होना उनके आरोपण में कोई बाधा नहीं डालता । ऐसी अवस्था में प्रधानतः रूपक होते हुए भी उनके अधिक, न्यून और समादि भेद भले-ही कर लिये जॉय, पर वे रूपक अवश्य रहेंगे और जब वे मूलतः रूपक न हों तथा उपमानोपमेय में अधिकता वा हीनता दिखलाई जाय, तब वहाँ अन्यान्य अलंकार हो सकते हैं। उदाहरण जैसे-"उसका मुख चंद्र-सा है" अथवा "उसका मुख चंद्र है", यहाँ "उपमा- रूपक" अलंकार कहे जायगे । इमी प्रकार "निष्कलंक होने के कारण उसका मुख सकलंक चंद्र से बढ़कर है' में 'व्यतिरेक' कहा जायगा । “उस (नायिका) का मुख-चंद्र प्रकाश में उदय होने वाले चंद्र से निष्कलंक होने के कारण बढ़कर है"-कहने पर "अधिकतद्र प रूपक' होगा और "उसका मुख मानों चंद्रमा है", यह उत्प्रेक्षा है। इन सभी उदाहरणों में "मुख का चंद्र से साम्घ लेकर ही वर्णन कि.ा गया है । सभी वर्णनों में कुछ-न-कुछ भिन्नता है और इसी भिन्नता से तद्-तद् स्थानों पर विविध अलंकार संयुक्त हो गये हैं, वे सब स्पष्ट हैं । व्यतिरेक और अधिकतर प-रूपक में क्या अंतर है, विशेष यही जानने योग्य है, क्योंकि प्रायः दोनों के विषय (भाव) एक-ही हैं, जो कुछ भिन्नता है, वह उनके वर्णनों में है । व्यतिरेक-वर्णन में उपमान चंद्र से उपमेय मुख में अधिकता वा वैशिष्ट्य दिखलाना मात्र है, एक का दूसरे पर आरोपण नाम मात्र को भी नहीं किया गया है। पर अधिकतद्र प रूपक में मूलतः मुख पर चंद्र का आरोप है और उस अारोप के अनंतर-ही मुख-चंद्र को श्राकाशगामी सकलंक चंद्र से बढ़कर कहा गया है, मुख्यतः यही इन दोनों अलंकारों में भेद है।" उपमा-बाचक रूपक उदाहरन जथा- नेम, प्रेम साहि, मति-बिमति सचिब चाहि. कुलको जु' सीव हाव-भाव-पील-सरि जू। पा०-१. ( रा० पु० का० ) सतराज, विमाति...। २.( का० ) (३०) सील...! (प्र०) इकल...। १७