पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२९१

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२५६ काव्य-निर्णय उदाहरन जथा- कर कंजन, खंजन-गन, ससि-मुखि-अंजन-देति । बिज्जु'-हास ते 'दास' जू, मँन-बिहंग गहि लेति ॥ अथ समस्त-विषयक रूपक लच्छन जथा- सकल बस्तु ते होत जहँ,' आरोपित उपमाँन । तिहिं समस्त-बिषयक' कहें, 'रूपक' बुद्धि-निधान ।। कहुँ 'उपमा', 'बाचक' कहूँ, 'उत्प्रच्छादिक (ते) होइ । कहूँ लिऐं 'परनाम, कहुँ रूपक रूपक सोइ ॥ वि०-"जैसा पूर्व में कहा गया है कि 'रूपक के प्रथम-'अभेद' और 'ताद्र प्य दो भेद होते हैं, इसके बाद इन दोनों के 'सम', 'अधिक' और 'न्यून' नाम के तीन-तीन भेद । तदनंतर 'सम-अभेद' के तीन-भेद--'सावयव' अथवा 'सांग' (अवयवों-अंगों के सहित उपमेय में उपमान का अारोप किया जाना ), 'निरवयव' या 'निरंग' (अवयवों वा अंगों से रहित केवल उपमान का उपमेय में आरोप करना) तथा 'पर परित' और कहे जाते हैं । अतएव सावयव के 'समस्त-विषयक' वा 'समस्त-वस्तु-विषयक' ( संपूर्ण अारोप्यमान और आरोप के विषयों का शब्द-द्वारा स्पष्ट कपन करना ) और 'एक देशविवर्ति' आदि दो भेद संस्कृत-अलंकाराचार्यों ने किये हैं। दासजी ने भी यही ऊपर लिखित दोहों में कहा है। साथ-ही अापने रूपक के 'उपमा-वाचक', 'उत्प्रेक्षा- वाचक', 'परिणाम-रूपक' और 'रूपक-रूपक' के साथ 'अपन्हुति-संयुक्त रूपक' उल्लेख-युक्त-रूपक'-आदि अन्य भेद भी किये हैं और इनके सफल उदाहरण भी दिये हैं। संस्कृत-थों में-'रूपक-रूपक' (उपमेय में एक उपमान का आरोप कर फिर एक और अारोप करना ), 'युक्त-रूपक', 'श्रयुक्त-रूपक', 'हेतु- रूपक' और रूपक की ध्वनि'- श्रादि अन्य भेद भी कहे गये हैं। 'आगे यह भी कहा गया है कि "जिस रूक में विशिष्टता अधिक अारूढ़ हो तब उसे 'अधिकारूढ़ वैशिष्ट्य रूपक' कहा जाता है, जैसे--'यह मुख निष्कलंक चंद्र है। यहां मुख पर चंद्र का आरोप है, किंतु मुख की विशिष्टता चंद्र से अधिक उस ( मुख ) के निष्कलंक ( कलंक-रहित ) होने के कारण बतलायी गयी है, पा०-१. (३०) बीज । २. (का० ) है ।