काव्य-निर्णय २५५ परिणाम के विषय-विभाजन में श्रौचित्य प्रतीत नहीं होता इत्यादि..." यहाँ दासजी ने रूपक के अंतर्गत परिणाम का उल्लेख "काव्य-प्रकाश"--मम्मट (संस्कृत की टोका 'उद्योत' से लिया है । वहाँ भी इसे स्वतंत्र अलंकार न मान कर रूपक के अंतर्गत-ही उल्लेख किया है। काव्य-प्रकाश में श्रीमम्मट ने 'रशनोपमा' की भाँति 'रसनारूपक' नाम से रूपक का एक विशेष भेद और माना है, तथा दासजी को भाँति अन्य उपमा- वाचकादि रूपकों का नहीं। रसनारूपक के प्रति वे कहते हैं-"इत्यादि, रशना- रूपकं न वैचित्र्य वदिति न लक्षितम् ।" रसनारूरकादि जैसे अलंकारों में विशेष चमत्कार न होने से नहीं कहे गये । साहित्य-दर्पण ( संस्कृत ) में भी-'अधिका- रूढवैशिष्ट य-रूपक' (जिस रूपक में वैशिष्ट य-विशेषण अधिक श्रारूढ हो, अर्थात् अारोप्यमाण की अपेक्षा भी अारोप-विषय में कुछ विशेषता अधिक दिखलाई जाय ) नाम का एक भेद और कहा गया है। साथ ही वहाँ परिणाम के भी- "परिणामो भवेत्तुल्यातुल्याधिकरणो द्विधा ।" -सा० १० १०, १५ "तुल्याधिकरण-परिणाम" और 'अतुल्याधिकरण परिणाम' नामक दो भेद और लिखे मिलते हैं। दासजी ने भी परिणाम का एक भेद 'समस्त-विषयक- परिणाम' और माना है, एवं संस्कृत ग्रंथ-रचयिताओं ने इसकी माला ।" सच तो यह है कि रूपक में उपमेय पर उपमान का आरोप मात्र होता है, उसका वास्तविक कार्य से कोई संबंध नहीं रहता। उदाहरण-रूप में कहा जा सकता है-'उसके मुखचंद्र को देखता हूँ।' यहाँ देखना कार्य है, किंतु उसका चंद्र से कोई संबंध नहीं। चंद्र यहाँ केवल मुख की समानता ( सुंदरता) प्रकट कर केवल शोभा बतलाता है और यदि यह कहा जाय-'वह नेत्र-कमल से देख रही है' तब वह परिणाम का विषय बन जायगा, क्योंकि यहाँ नेत्र के देखने का कार्य उपमान कमल के द्वारा होना कहा गया है। रूपक में केवल समानता-ही सूती है और परिणाम में एकात्मता-सी लाई जाती है, जिससे उपमान उपमेय का कार्य भी करने लगता है जो उसका कार्य नहीं । परिणाम-एक विशिष्ट प्रकार का रूपक ही है, क्योंकि रूपक होते हुए भी वह उपमेय तथा उपमान में तादात्म- स्थापित कर उपमेय का प्रकृत कार्य उपमान के द्वारा कराता है। जैसे दासजी द्वारा कथित निम्नलिखित उदाहरण में ।'
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