पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२८८

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काव्य-निर्णय २५३ "लाल-प्रवाल से मोठ रसाल, अमीरस पान के ताप बुझह है। श्रीफल से बरजोर, कठोर,-उरोज को कोरॅन कॉम-जगइ हैं कुदन-कांति से लोल-कपोल,-अमोलन चूमि के दाह-बढ़ा है। फूलन के परजंक 4 पौदि, मयंक-मुखी कब अंक लगइ हैं।" पुनः उदाहरन जथा- अब तो बिहारी के वे बाँनिक गए-री, तेरी तन-दुति-केसर को नेन-कसमीर भौ। स्रोन तुब' बाँनो स्वाँ ति-बूदन को चातक भौ, साँसन को भरिबौ सो द्रोपदी को चीर भौ॥ हिय को हरख मरु-धरनी को नीर भौ-री, जियरा' मॅनोभब"-सरन को तुनीर भौ। एरी, बेगि करि के मिलाप-थिर-थापि न तो आप अब चाँहत अतन को सरीर भौ ॥ वि०-"दासजी ने यह छंद अपने द्वितीय ग्रंथ "गार-निर्णय" में "अढा" नायिका ( अपने विवाहित पति के अतरिक्त अन्य पुरुष से प्रेम करने वाली ) के अंतर्गत--"दुःख-साध्या" ( कष्ट से मिलने वाली) के उदाहरण में भी उद्धृत किया है । ऊढा, यथा- "जो ब्याही तिय और की, करें और सों प्रीति ।" -जगद्विनोद (पनाकर ) किंतु, हमारी अल्प-मति के अनुसार नायिका के प्रति नायक का दूती-द्वारा विरह-निवेदन है,-मिलने की उत्कंठा जागृत करना है और यही दासजी ने अपने "दुःख-साध्या" के लक्षण में कहा भी है, यथा- "साध्य कर पिय-दूतिका, विविध-भाँति समझाइ । 'दुख-साध्या' ता को कहें, परकीयन में पाइ॥" -अंगार-निर्णय, १२ दासजी को इस रचना पर किसी कवि की यह रचना भी अजर-अमर है, यथा- पा०-१. ( का०) (३०) (प्र०) (१०नि०) तो...। २. (का० ) (३०). (प्र०) द्रुपदजा को...। ३.( का० ) (३०)(प्र.) जियरो...। . (रा० पु० प्र०).. (रा० पु. का० ) (ग० पु. नी. मु०) मनोभव के सरॅन...(प्र.) (सं० पु० प्र०). (०नि०) मदन-तीर गँन को...।

  • नि० (मि० दा०) पृ० ३३, ६७ ।