२४४ काव्य-निर्णय अनेक भेदों का वर्णन किया है। संस्कृत-अलंकाराचार्यों ने भी 'रूपक' के निम्न प्रकार से भेद माने हैं । उन्होंने प्रथम रूपक के "अभेद' और 'तदरूप' दो भेद कर इन दोनों के जैसा कि दासजी ने भी स्वीकार किया है, सम, अधिक और न्यून मानकर पुनः सम-अभेद "सावयव ( सांग ), निरवयव (निरंग) और परंपरित" रूप से तीन भेद और किये है। सावयव के भी 'समस्त-विषयक और एक देशविवर्ति दो भेद किये हैं। इसी प्रकार 'सम-अभेद' के द्वितीय भेद रूप निरवयव रूपक के 'शुद्ध' और 'माला' रूप में दो भेदों का कथन कर पुनः तीसरे 'परंपरित' रूपक के श्लिष्ट-शब्द और भिन्न-शब्द से दो भेदमान पुनः इन्हीं को शुद्ध और माला रूप में विभक्त किया है। इस प्रकार संस्कृतज्ञ महानुभावों ने जहाँ 'अभेद-रूपक' का वर्णन किया है, वहाँ दास जी ने 'तदरूप' रूपक का । जो केवल वाकछल' है, अर्थ-भेद वा भाव-भेदादि नहीं। अन्य भेद यथा स्थान उपयुक्त हैं।" प्रथम तदरूप रूपक अधिकोक्ति उदाहरन जथा- सत कों काँमद, असत को भै-प्रद सब दिस-दौर । 'दास' जाँचिबे जोग प कलपबृच्छ है और ॥ वि०-"तद्प-रूपक में उपमेय को उपभान का जहाँ भिन्न ( दूसरा ) रूप कहा जाय, अर्थात् यहाँ उपमेय को उपमान से भिन्न रखकर भी उसी (उपमेय) का रूप कहा जाता है। अधिफ तद्प में - "उपमेय पर उपमान का आरोप करने के अनंतर उसे उसी उपमान से बढ़ा कर कहा जाता है, जैसा दास जी के इस उदाहरण में । यहाँ उक्त रूपक के साथ व्याघात ( जहाँ एक ही क्रिया से दो विरोधी कार्य हों) की 'संसृष्टि' भी है।" तदरूप रूपक-हीनोक्ति को उदाहरन जथा- लखि, सुनि जाइ न ज्वाब दे, सहे पर कृत-नोंच । बास खलँन के बीचि को, बिना मरे की मीच ॥ वि०-"जब कि उपमेय पर आरोपित उपमान को उसी उपमान से हीन, घटाकर कहा जाय तब उक्त अलंकार बनता है।" पा०-१. (का०)(३०)(प्र०) यह . । २. (२० पु० प्र०) (का०)(३०) (प्र०) मुये.... .
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