काव्य-निर्णय २४१ वि०--"दासजी ने "शृगार-निर्णय" में इस छंद को नायिका के नख-सिख- रूप" मुख-मंडल के वर्णन में भी दिया है और "नख-सिख-संग्रह" में भी उक्त शीर्षक के अंतर्गत ही यह छंद संग्रहीत है। शृंगार-निर्णय में दासजी ने इसका पाठ-भेद इस प्रकार किया है- "मावै जित पानिप-समूह सरसास 'नित', 'माने' जलजात 'सुतौ' न्याइ-ही कुमति 'होइ' । 'दास' जा दरप को दरप कंदरप को है, दरपन-सॅम ठाँनें कैसें बात ये सति 'होइ' ॥ और 'अबलांनन' में राधिका 'कौ' ऑनन, 'बरोबरी' को बल कहैं 'कबि' कूर अति 'होइ'। पैऐ निस-बासर 'कलंकित न अंक ताहि', बरने मयंक कबिताई की भपति 'होई॥" यहां कोमांकित शब्द पाठ-भेद के सूचक हैं । नख-सिख-संग्रह कर्ता ने भी यही पाठ माना है। ब्रज-साहित्य में 'चंद्र'-प्रति बड़ी-बड़ी सुदर सूक्तियां कही गयी है, यद्यपि ये सब संस्कृत-सूक्तियों की छाया से अनुप्राणित हैं, फिर भी कोई-कोई तो उससे भी श्रागे बढ़ अपनी प्रभा से ब्रज-साहित्य को जगमगा रही हैं। उदाहरण, यथा- भंमृत कों ऐचि धरयौ राधिका के होठन में, चंद्रिका-छिनाइ दींनी देखौ दसनाद कों। सोबस कलान काटि बत्तिस बनाए दंत, वाही कों बिलोकि हीरा पावत प्रमाव कों॥ पोषन-सकति छीनि धरी है बचन मोहि, ऐसें सब छींनि लियो मेंटि मरजाद कों। 'गोबिंद' भनत तब काइ में कलेस-पाइ, चंद लै कलंक नम फिरत फिराद कों॥ पुनः उदाहरन जथा- सब सुख सुखमाँ-सों मन्यौ,' तेरौ बर्दन सबेस। ता-सॅम ससि क्यों बरनिऐं, जाको नाम कलेस ॥ वि०-"दासजी की इस अनूठी उक्ति के साथ निम्नलिखित कुछ दोहे जो विविध कवियों ने कहे हैं, देखिये, यथा- पा०-१.(प्र. ) भरयो...। २.(का०) को...।
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