२३४ काव्य-निर्णय वि०-"संस्कृत के साथ ब्रजभाषा के साहित्य-महारथियों ने भी 'संदेह' की माला और ध्वनि का वर्णन किया है । प्रथम माला, यथा- कैधों रूप रासि में सिंगार-रस अंकुरित, ____ संकुरित कैंधों तम-तरित जुन्हाई में। कहैं 'पदमाकर' किधों ये काम मुनसी ने, मुकता दियौ है हेम-पाटी सुखदाई में ॥ कैचों अरविंद में मलिद-सुत सोयौ भाज, राज रहयौ तिल के कपोल की लुनाई में । कंधों परयौ इंदु में कलि दी-जल-बिंदु आँनि, गरक गुबिंद किधों गोरी की गुराई में । और ध्वनि, यथा- थी, शरद-चंद की ज्योति खिली, सोवै था सब गुन-जुटा हुआ। चौका की चमक अधर-बिहँसन, रस-भीजा-दाडिम फटा हुभा ॥ इतने में गहन-समें बेला, लख ख्याल बड़ा अटपटा हुआ । अवनी से नभ, नभ से अवनी, अध उछलै नट का बटा हुमा ।। अस्तु, दासजी ने यह -"चारु मुख०" छंद अपने शृंगार-निर्णय में नायिका का नख-सिख वर्णन करते हुए. उसकी नासिका की प्रशंसा में उद्धृत किया है और "नख-सिख-संग्रह"कार ने भी श्रापका अनुकरण करते हुए वही नासिका के वर्णन में संग्रह किया है।" "इति श्री सकल कलाधर बंसावतंस भीमन्महाराजकुमार श्रीबाबू हिंदूपति विरचिते 'काव्य-निरनए' उप्रेच्छादि अलंकार बरननोनाम नवमोल्लासः ॥"
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