पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२६४

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काव्य-निर्णय २२६ अशानता का कारण न हो, जैसा कि 'कविकुल तिलक गो० तुलसीदास' जी की इस उक्ति में- "जो जिहिं मन-भावै सो लेंहीं, मनि मुख-मेलि डारि कपि देहीं । यहाँ वानर समूह अज्ञान वश मणियों को फल समझ मुख में रख तो लेते हैं, पर उनमें किसी प्रकार का स्वाद न पा और दांतों से टूटने वाला भी न समझ उन्हे थूक देते हैं -उगल देते हैं । अस्तु, यह भ्रम वानरों की अज्ञानता के कारण है, इसलिए यहाँ वह अलंकार के रूप में भी नहीं हैं ( का० क० पो०)। भ्रमा- लंकार का निम्न-लिखित छंद सुंदर उदाहरण कहा जायगा । यथा- 'सीख-सिखाई न माँनति है, बर-हूँ बस संग सखीन के भाव । खेलति खेल नए जल में, बिन-कौम वृथाँ कत जाय बिताये ॥ छाँदिक संग सहेलिन को, रहि के कहि कान सबाद-बढावै। कोंन परी यै बाँनि भरी, नित नीर-भरी गगरी उरिकाबै ॥" अथवा- देखकर बह आइना को, भक्स से कहता है शोख । हुस्न का दावा है कुछ, तो निकल बाहर प्रामो॥ -कोई शायर अस्तु, इसी प्रकार 'जब वर्ण्य वस्तु (उपमेय) में किसी अन्य वस्तु (उपमान) का चमत्कार पूर्ण वर्णन हो, उपमेय को देखकर यह तर्क उठे कि यह उपमेय है कि उपमान अथवा अन्य कुछ तब 'संदेहालंकार' कहा जाता है। संदेह का शब्दार्थ स्पष्ट है, फिर भी यहाँ कवि-कल्पित चमत्कार पूर्ण संदेह को-किसी वस्तु के विषय सादृश्य मूलक संशय को, उक्त अलंकार कहा जायगा, साधारण लौकिक संशय होने पर नहीं। अतएव अलंकाराचार्यों ने इसे 'शुद्ध', निश्चय-गर्भ' और 'निश्चयांत' तीन प्रकार का माना है। कन्हैयालाल पोद्दार ने अपनी अलंकार-मंजरी में श्री मम्मटाचार्य के अनुसार संशय को भेद की उक्ति- में और अनुक्ति में मान कर प्रथम भेद की उक्ति के-निश्चय-गर्भ और निश्चयांत भेद माने है, किंतु श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ने अपने साहित्य-दर्पण में उपयुक्त तीनों भेद मानते हुए लिखा है- "संदेहः प्रकृतेऽन्यस्य सशयः प्रतिभोस्थितः। शुदो निश्चगर्भोऽसौ निश्चयांनः इति त्रिधा ॥" यही नहीं, पोदार जी ने दासजी-द्वारा वर्णित संदहालंकार के उदाहरण "लखें वहि टोल में नौज-बधू०" में यह अलंकार भी नहीं माना है, आपका कहना है कि 'नायिका के सिर-पां से लेकर कौन-कोन से अंगों के सोदर्य की