२२६ काव्य-निर्णय हैं । अर्थात् किसी सादृश्य वस्तु ( उपमान) के देखने का अनुभव होने के बाद वैसी-ही दूसरी वस्तु ( उपमेय ) का स्मरण श्राने पर यह अलंकार बनता है । अनुभव, ज्ञान का एक भेद है और शान, अनुभव तथा स्मृति-रूप द्विविध है। जिस प्रकार घड़े को देखने पर प्रथम अनुभव हुआ कि ऐसी-ही वस्तु घड़ा कहलाती है तो यह अनुभव-ही मस्तिष्क में एक स्थान बना लेता है, जिसे संस्कार भी कह सकते हैं। अतएव जब कभी फिर वैसो-ही वस्तु सामने आती है तब इस संस्कार का अनुभव उस वस्तु का स्मरण करा देता है। इस प्रकार मस्तिष्क क्रमशः अनुभव, संस्कार और स्मृति के रूप में कार्य करता है । जब नेत्रों- द्वारा किसी सदृश वस्तु का हृदय में अनुभव होता है तो संस्कार वैसी-ही दूसरी वस्तु का, जिसका प्रथम अनुभव प्राप्त कर चुका है, स्मरण करा देता है और वह 'स्मरण-ही साहित्य में अलंकार कहा जाता है। अनुभव के अंतर्गत जैसा कि आगे के दोहे में दासजी ने कहा है-देखना, सुनना. याद अाना, सोचना- आदि मस्तिष्क की सभी क्रियाएँ श्रा जाती हैं, क्योंकि अनुभव, प्रत्यक्ष तथा स्वप्नादि में भी होता है और इनमें भी उक्त क्रियाओं का स्मरण होता रहता है, पर जैसा अनुभव चाहिये वैसा अनुभव उसके सदृश-वस्तु ही के अनुभव पर हुआ है, या ( उसे ) स्पप्न में देखकर, यह निश्चय नहीं हो पाता । क्योंकि कभी-कभी उससे संबंधित वस्तु के अनुभव से भी स्मरण हो सकता है और जब कभी एक सदृश वस्तु का स्मरण हो जाने पर वैसी-ही दूसरी वस्तु का स्मरण हो पाता है, तो उस अवस्था में अनुभव के अंतर्गत यह स्मरण नहीं पाता । क्योंकि कभी- कभी विरोधी वस्तु के ज्ञान होने पर भी प्रथम देखी हुई वस्तु का स्मरण हो श्राता है......। सुमरन वा स्मरण का द्वितीय नाम स्मृति भी है, और वह इसके अनुप्राण- व्यभिचारी या संचारो-भावरूप 'सुमरन' वा स्मृति जैसी नहीं है। सुमरन वा स्मृति-संचारी का वर्णन ब्रजभाषा कवि-कोविदों ने इस प्रकार किया है- "मॅन-भावन की बात कों बिछुरि कर जब याद । ता को "सुमरन" कहत हैं, रस-प्रथम अविवाद॥" ' अर्थात् वियोग-समय प्रिय की पूर्व चेष्टाओं का ज्ञान होकर जब चित्त-व्यथित हो- उन्हें याद कर-कर पछताने लगे, तब उन–'सुमरन" वा "स्मृति' को विप्रलंभ-शृगारांतर्गत दशा-विशेष कहते हैं । साहित्य-दर्पण ( संस्कृत ) में विश्व- नाथ चक्रवर्ती कहते हैं- ___ "सश ज्ञान चितानं समुनयनादि कृत् । . . . . . . 'स्मृति' ानुभूतार्थविषपशनमुग्यते ।"
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