२२ २२॥ काम्य-निर्णय अथ अपन्हुति की संसृष्टि जथा- एक रद है न सुभ्र-साखा बदि भाई लंबोदर में बिबेक-तरु जो है फल' बेस की। सुडादंड कैतब हण्यार है उदंड वो, राखत न लेस अघ - बिघुन • असेस कौ ॥ मद कहें भूलि ना मरत सुधा-धार यह, ध्यान-ही ते हो को दृढ़ हरन कलेस को। 'दास' यै बिजॅन बिचारचौ तिहुँ तापॅन को, दूरि को करन बारी करन गनेस को । वि०-"विघ्नेश गणराज पर "रत्नाकर" जी ने भी बड़ी-बड़ी चमत्कृत सूक्तियाँ कहीं हैं, एक जैसे-- "ठेले कछु दंत सों, सकेले कछु सुंस्-माँहि, मेले कछु भनिन गजानन परात हैं। कहै 'रतनाकर' जगत में न रंच कहूँ, भगत - विन के प्रपंच दरसात है। धाइ-थाइ पारत फनी के मुख-मंडल में, लाइ-लाइ सोऊ जीभ चन करि जात है। उत तौ उमाँ के उर उठत अनेस, इत भेस देखि मुदित महेस मुसिकात है।" अथ सुमरँन, म अरु संदेह अलंकार बरनन जथा-- सुमरन, भैम, सदेह के लच्छन प्रघटें नाम। . उत्प्रच्छादिक में नहीं, तदपि मिलें अभिराम ।। वि०-"भाषा-भूषण के कर्ता जसवंत सिंह जी ने भी इन 'भेद-प्रधान 'सुमरन' ( स्मरण ) और अभेद-प्रधान 'भ्रम' तथा 'संदेह' अलंकारों को एक साथ-ही वर्णन करते हुए लिखा है- ___"सुमरन, भैम, संदेह ए, लन्छन नाम प्रकास ।" अस्तु, किसी पूर्वानुभूत वस्तु के समान किसी अन्य वस्तु के देखे जाने पर उस (पूर्वानुभूत वस्तु ) की स्मृति-कथन को 'सुमरन' (स्मरण) अलंकार कहते पा०-१. (का० ) (३०) सुन...। २. (३०.) पै...। ३. ( का० ) (०) थे। १५
पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२६०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।