पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२५८

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काव्य-निर्णय २२१ अथ छेकापन्हुति उदाहरन जथा-- दच्छिन जा तन के बिच है, हरें, हरें चाँदनी में चलि आयो। बास-बगारि के ढारि रस, लगि सोरौ कियो हियरौ मन भायौ। 'दास' जू या बिन या उदबेग सों, प्रॉन वही ये जॉन हों पायो। भेट्यौ कहूँ मँनरोंन अलो, नहिं-री सखि, राति को पोन सुहायौ ॥ वि०-"छेकापन्हुति जुक्ति करि, पर सों बात दुराइ०"...अर्थात् , जहाँ युक्ति पूर्वक ( किसी) दूसरे व्यक्ति से अपनी बात छिपाई जाय वहाँ होती है । इस अरन्हुति का उदाहरण 'गोकुल' कवि का बड़ा सुंदर बन पड़ा है, यथा ~ "साँवरौ सलोंनों गात पीत-पट सोहत सौ, अंबुज से प्रांनन पे पर छवि ठरकी। मंत्र ऐसी, तंत्र जैसी, जंत्र-सी तरकि परै, हँसनि,चलनि, चितवनि त्यों सुघर की। 'गोकल' कहत बँन-कुंजन को बासी लखें,हाँसी-सी करति है री, काँम कलाधरकी। इतने में बोली भरी, मिले हरि सुख-दाँनी,नाही में कहाँनी कही राम-रघुबर की ॥ और 'खुशरो' की कहमुकरियां, यथा-- "अरध-निसा वह भायौ भोंन, सुदरता बरने कवि कोंन । निरखति-ही मन मन भयौ अनंद, क्यों सखि साजन, ना सखि चंद ॥ "राति-दिनाँ है जाको गोन, खुले द्वार भाव मो भोंन । वाको हरख बताऊ कोंन, क्यों 'सखि' साजन, ना सखि पोन ॥" भारतेंदु जी ने भी इस विषय को अपनाया है, और खूब अपनाया है, आपकी नई-मुकरियाँ साहित्य को अनूठी देन है, यथा-- "सब गुरुजन कों बुरी बतावै, अपनी खिचड़ी अलग पकावे। भीतर तत्त न, झूठी तेजी, क्यों सखि साजन, ना अँगरेजी ॥" "भीतर-भीतर सब रस चूस, हँसि-हँसि के तन, मन, धन मूसै। जाहर वातन में अति तेज, क्यों सखि साजन, ना अंगरेज ॥" अलंकार-श्राचार्यों ने छेकापन्हुति को श्लेष-मिश्रित भी माना है । उदाहरण, यथा-- ____प्रा०-१. (का०) (३०) प्र०) जातिन (न्ह) के...। २. (का०) (०) कै होरी कियो मन...1