२२२ काव्य-निर्णय नंद गाँउ ते मैहैरि जसोधा, समधिन न्योंति बुलाई ॥ संमधिन पाई, सव-मन भाई, निसि समधी-सँग खेली। 'खोलि' हुलास भाइ दिग बैठी, मौहरन को सी थैली ॥ अति सुरंग 'सारी' सँमधिन की, हैंगा भति-ही सुदार । 'फार्टि' रही 'सगरी' सँमधिन की, चोली, जोबन-भार ॥ समधिन को 'हाथी को भावै', आछौ, नींको, पूरौ । रंग रंगीलो, औ चटकीलौ हाथ भरे को चूरौ ॥ सँमधी तौ 'दीयौ-ही चाहें, खोलि' डबा की गाँठि । अपने सँमधी के नेगिनि कों, हीरा पन्ना बाँटि ॥" --संत-धमार, १०८० इन दोनों पदों में कोमा की पगड़ी के भीतर भिन्न टायप के शब्दों की बहार देखने लायक है कि कवि किस प्रकार न कहने योग्य वाक्यों-द्वारा अश्लीलता को अपनी उपस्थित बुद्धि से बदल कर भाव को कहाँ-से-कहां ले जा कर हास्य का सुंदर स्वरूप स्पष्ट कर देता है। भारती-भूषण में केडियाजी ने दास जो के इस छंद में भ्रांतापन्हुति की -माला मानी है, क्योंकि इस-ऑनन है, अरबिंद न फूले...के चारों चरणों में उक्त अपन्हुति है । एक दूसरा उदाहरण भी 'माला' का वहाँ दिया है, यथा- "हे पंच-सायक मार, मत पुष्प केसर मार ॥ असि-गदा-सूल चलाव, पुनि देख मेरे दाव । मत जॉन तू बिधु-बाल, है खौर चंदन भाल ॥ नहीं जटा मेरे सीस, मंदील आहि रतीस । नहिं जान्हवी की धार, है मुक्त-हाग्नि-हार ।। है सर्प नाहिं अनंग, यह परयो सेला अंग। मैं अहहु राजकुमार, सिब जॉन मोंहि न मार ॥ -रा० दे० प्र० पूर्ण संस्कृत में भी एक ऐसी सुंदर सूक्ति मिलती है, जो यही भाव व्यक्त करती है, यथा- जटा नेयं वेणीकृतकचकलापो न गरलं, गले कस्तूरीयं शिरसि शशिलेखा न कुसुमम् । इयं भूतिनों गे प्रियविरहजन्मा अवलिमा, पुराराति भ्रांत्या कुसमशर कि मां व्यथयसि ॥" -सुभाषित १६८, ४४
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