काव्य निर्णय २२१ वि०-“जब उपमेय में उपमान का होने वाला भ्रम दूर किया जाय तब यह अलंकार बनता- कहा जाता है। शुद्ध-अपन्हुति-श्रादि में प्रकृत ( उपमेय ) का निषेध किया जाता है, यहाँ उपमान का । इसलिये साहित्य-दर्पणकार विश्वनाथ चक्रवर्ती ने इसे एक स्वतंत्र अलंकार "निश्चय" नाम से माना है । दंडीजी ने भी इसे "तत्त्वाख्यानोपमा" नाम से उपमा का ही एक भेद विशेष कहा है । अस्तु, भ्रांतापन्हुति का उदाहरण कविवर 'लच्छीराम' का भी सुंदर है, यथा- "भाँवरें भरत भोर भूलें अरबिंदन के, हाथ गजरारे और नारे की लगन में। कबि 'लच्छीराम' कब दामिनी फिरति भूमि, भूमत मयूर मतबारे मोद मैंन में ॥ मॉनसर मोतिया न, सेद-बिंद गोरे--गात, पीछे परौ नाहक मराल मुरछन में। बासर में चंद है न, प्यारी को प्रमंद मुख, फूले मति मंद क्यों चकोर मधुबन में॥" अथवा- "गंग नहीं, मुकता-भरी मांग है, चंद नहीं ये उज्जल भाल है। भूति नहीं, मलयागिरि सोहत, सेस नहीं, सिर बनी बिसाल है। नील नहीं, मखतूल के पुंज हैं, बिजया है नहीं, बिरहा सों बिहाल है। एरे मनोज, सँम्हारि के मारियो, ईस नहीं ये कोमल बाल है।" भ्रांतापन्हुति के अंतर्गत भानु (जगन्नाथप्रसाद भानु) कवि ने 'परिहासापन्हुति' भी मानी है और उदाहरण में भारतेंदु बा० हरिचंद्र जी का निम्न-लिखित 'पद" दिया है- "होरी में समधिन भाई. अहो फांगुन-स्यौहार मनाई ॥ जथा-सक्ति कीन्हों सब-ही ने, समधिन को सतकार । समाधिन जू में 'बौहौत करायौ', भादर-सिस्टाचार ॥ समधिन जू की 'चिकनी-चुपरी', चोटी सोंधौ लाइ । संमधिन को लखि, रिपटि-परति', समधी को मन धाइ ॥" -भा०प्र०पू० ३७१ अस्तु, इस प्रकार की रचना भारतेंदु जो से प्रथम "सूरदास जी" की भी मिलती है, जैसे- "रहसि घर संमधिन भाई, ए सब सुजनन के मन-माई ॥ संमधिन सों समन्यौरी कीजै, कीरति ये मन भाई।
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