काव्य-निर्णय २१९ माँजि-मिसीजि'सुजोरि दियो, सोई 'दास' बिचों-बिच स्याँमता है-री। चाइ', चबाइ-बियोगिनि कों द्विजराज नहीं द्विज-राज है बैरी ।। विo.-"द्विजराज शब्द के कई अर्थ उसके श्लेष-संयुक्त होने के कारण होते हैं, यथा- द्विजराज-चंद्रमा, ब्राह्मण, दंत-पंक्ति-श्रादि, यथा- ___केकितापर्यावहिभुजौ दंतविप्रांडजा द्विजाः ।" ___-अमरकोश (नानार्थ-वर्ग) अथवा- "द्विज पंछी, द्विज कहत ससि, द्विज कहिऐ पुनि दंत । तीन-बन ते द्विज बड़ौ, सेबत कमला-कंत ॥" - नंददास (अनेकार्थ-मंजरी) अस्तु, “द्विजराज" शब्द के एक श्लेषार्थ के सहारे रीति-काल के प्रख्यात कवि पद्माकर की सुमधुर सूक्ति देखें, यथा- "सिंधु को सपूत-सुत, सिंधु-तनया को बंधु, मंदिर भमंद सुभ सुदर सुधाई के । कहै 'पदमाकर' गिरीस के बसे हो सीस, तारैन के ईस, कुल-कारन कन्हाई के ॥ हाल-ही की बिरही बिचारी ब्रजबाल-ही पै। ज्वाल से जगावत जुवाल-सी जुन्हाई के। एरे मति मंद चंद, भावति न लाज तोहि, है के 'द्विजराज' काज करत कसाई के ॥" अथ हेत्वापन्हुति उदाहरन जथा- अरी, घुमरि घेहरात घुन, चपला-चमक न जाँन । कॉम-कुपित कॉमनींनि पै, धरत साँन किरबाँन ।।. वि०--"यहा बात किसी दूसरे कवि ने इस प्रकार कही है, यथा- "यै चपला चमकति नहीं, डारि धनुष औ बाँन । बिरहिन पै अति कोप सों, काढ़ी कॉम कृपान ॥" पा०-१.(सं० प्र०) मिसी जसु जोर दयौ। (का०) मिसी जम जोर दयौ.... (वे.) मिसी मुंह जोरु दयो... (प्र०) मिसी द्विज-माझि दई सोइ...। २. (का०) चाई-चबाई...। (प्र०) चाप-चबाब...। ३. (सं० प्र०) हैं...।
- , का० प्र० ( भानु०) पृ० ५०४, ४२ । स० स० (ला. म. दी०) पृ० २२७, १०१ ।