काव्य-निर्णय २१२ को-श्लेष-मूला और साप-हवी भी माना है । इनके सुंदर हृदयग्राही उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं। मालोत्प्रेक्षा का वर्णन करते हुए पं० राज जगन्नाथजी ने निम्नलिखित उदाहरण दिया है- द्विनेत्र इव वासवः करयुगो विवस्वानिव-- द्वितीय व चंद्रमाः श्रितवपुर्मनोभूरिव । नराकृतिरिवांबुधिगुरुरिवक्षमाभागतो- नुतो निखिल भूसुरजयति कोऽपि भूमीपतिः ॥ अर्थात् “मानों दो आँख वाला इंद्र हो, मानों दो कर ( हाथ और किरण ) वाला सूर्य हो, मानों दूसरा चंद्र हो, मानों देहधारी काम हो, मानों मनुष्य के से प्राकार वाला समुद्र हो, मानों पृथ्वी पर भार वृहस्पति हो, ऐसा सभी ब्राह्मणों से प्रशंमित एक-अनिर्वचनीय राजा सर्वोत्कृष्ट है (२० गं० पृ० ६०६ )।" इसके अतरिक्त अापने श्लेषमूला तथा सापन्हव के भी उदाहरण दिये हैं, यहाँ हम केवल सापन्हव-उत्प्रेक्षा का एक उदाहरण देते हैं, यथा- "नहिंन ए पावक प्रबल, लुऐं चलत चहुँपास । माँनों बिरह बसत के, ग्रीषम लेत उसास ॥" रूपक-मिश्रित उत्येक्षा के भी उदाहरण मिलते हैं, यथा- "चपल-तुरंग-चख, भृकुटी जुवा के तारे, धाइ-धाइ मरत पिया के हेत पथ है। तरल-तरोंना चक्र, प्रासन कपोल-लोल, प्रायुध अलक-बंक विकस्यौ सुगथ है ॥ सारथी सिंगार हाव-भाव करि रोर लिए, मन से मतंगँन की गति लथ-पथ है। विविध विलास साज साजे कवि 'उरदॉम' मेरे जॉन मुख मकरधुज को रथ है ॥" यही नहीं इन साहित्याचार्यों ने-भ्रांतिमान् , संदेह और अतिशयोक्ति अलंकारों से उत्प्रेक्षा की पृथक्ता का उल्लेख करते हुए लिखा है कि भ्रांतिमान् अलंकार में एक वस्तु में अन्य वस्तु की कल्पना की जाने पर सत्य वस्तु का ज्ञान नहीं होता, अपितु कवि के कथन द्वारा ही सत्यवस्तु का वर्णन किया जाता है और उत्प्रेक्षा में वस्तु के सत्य-स्वरूप का ज्ञान भी रहता है। संदेह अलंकार में ज्ञान को दोनों कोटियाँ समकक्ष प्रतीत होती रहती हैं, उत्प्रेक्षा में केवल एक कोटि जिसकी उत्प्रेक्षा की जाती है, प्रबल रहती है । इसी प्रकार अतिशयोक्ति अलंकार में अध्य- वसाय सिद्ध होता है---उपमेय का निगरण होकर उपमान का ही कथन होता है, उत्प्रेक्षा में ऐसा नहीं । वहाँ उस (उपमान) का अध्यवसाय साध्य रहता है- उपमान का अनिश्चित रूप से कथन होता है। उर्दू-कवियों-शायरों ने भी उक्त उत्प्रेक्षा के सुंदर उदाहरण प्रस्तत किये हैं, जैसे-
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