पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२४७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२१२ काव्य-निर्णय अथ प्रसिद्ध-विषया फलोत्प्रेच्छा जथा- खंजरीट नहिं लखि परत, कछ दिन साँची बात। बाल-गन-सम होन कों, मनों' करन-तप जात . अस्य तिलक इहाँ खंजन (पच्छीन ) को तप करिबे जैयौ प्रसिद्ध विषय है। वि०-“यहाँ तक 'दासजी' ने “वाच्योत्प्रेक्षा" के उदाहरण-ही प्रस्तुत किये हैं। इन सभी में उत्प्रेक्षा-वाचक शब्द-“जनु, मनु, मनों" अथवा 'से, सो आदि उपस्थित हैं, इसलिये ये संपूर्ण उदाहरण वाच्योत्यक्षा के ही हैं । इन वस्तु, हेतु और फल-रूपी तीनों वाचयोत्प्रेक्षाओं में कहीं जाति उत्प्रेक्ष्य है, कहीं गुण और कहीं क्रिया उत्प्रेक्ष्य है तो कहीं द्रव्य । कुछ प्राचार्यों का मत है कि द्रव्य-गत उपेक्षा ही वस्तूप्रेक्षा बन सकती है, हेतूत्प्रेक्षा और फलोत्प्रेक्षा नहीं । पर रसगंगाधर के कर्ता पं० राज जगन्नाथजी ने द्रव्य-गत हेतु और फलोत्प्रेक्षा को भी माना है और इनके उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं। वायोत्प्रेक्षा रूप इन तीनों भेदों के जाति, गुण, क्रिया और द्रव्य भेद से चार-चार भेदों का उल्लेख हो चुका है। उनमें कहीं 'भाव' और कहीं "अभाव" उत्प्रेक्ष्य होता है। उत्प्रेक्षा के द्वितीय स्वरूप "प्रतीयमाना" के विषय में 'विश्वनाथ चक्रवर्ती' अपने साहित्य-दर्पण (संस्कृत ) में कहते हैं कि प्रतीयमाना-फलोत्प्रेक्षा और हेतूपक्षा तो हो सकती है, किंतु वस्तूपक्षा नहीं। कारण वस्तूप्रक्षा में यदि उत्प्रेक्षा- वाचक शब्दों का प्रयोग न किया जाय तो वहाँ अतिशयोक्ति की प्रतीति होने लगती है, यथा- "प्रतीयमाना भेदाश्च प्रत्येकं फलहेतुगाः।" और जैसा इस ब्याख्या में वहां कहा गया है। यही नहीं, आपका यह भी मत है कि “यदि उक्त उत्प्रेक्षा के तत्तद उदाहरणों में उत्प्रेक्षा वाचक शब्द हटा दिये जाय तो वहाँ-वहाँ असंबंध में संबंध वाली 'संबंधातिशयोक्ति" बन जायगी, किंतु पंडितराज जगन्नाथ जी ऐसा नहीं मानते । श्राप उत्प्रेक्षा-वाचक शब्दों के अभाव से अलंकृत ऐसे उदाहरणों में भी गम्योत्प्रेक्षा-लुप्तोत्प्रेक्षा ही मानते हैं, संबंधातिशयोक्ति नहीं । श्रापका मत है कि “संबंधातिशयोक्ति वहीं होती है, जहाँ उत्प्रेक्षा की सामग्री न हो...इत्यादि...।" पा०-१. (सं० प्र०), करन मनों तप...

  • , ९० स० ( म० दी०) पृ० ५०, १६ ।