२११ कान्य-निर्णय "जिय-रंजन, खंजन गन, अंजन दियो बनाइ । मनों साँन फेरी मदन, जुगल बाँन जिय-लाइ ॥" . अथवा - "एक तौ नेना मद-भरे, दुजें अंजन-सार । बूमि बावरी देति को, मतबारेन हथियार ॥" क्योंकि- "रह गए लाखों कलेजा थाम कर । माँख जिस जानिब तुम्हारी उठ गई ॥" -कोई शायर पुनः उदाहरन जथा- बिरहिँन-अँसुवन-बिधि' रहें, दरसाबन' नित सोध । 'दास' बढाबँन को मनों, पूनों दिनँन पयोध ॥" अस्य तिलक इहाँ पून्यों के दिनन में पयोध ( सागर, समुद्र ) को बढ़ियौ 'सिद्ध फल है। वि०-"अश्रु-प्रवाह पर ब्रजभाषा के कवियों ने इस-बरपा कर दिया है, सैकड़ों नहीं, हजारों-ही अनमोल सूक्तियाँ रच डालो हैं । यहाँ हम केवल ब्रज- भाषा के अंतिम श्रेष्ठ कवि बा० जगन्नाथदास 'रत्नाकर' की एक रम्य-रचना देकर ही संतोष करते हैं, यथा- "जस, रस, मधुर, लुनाई 'रतनाकर' कों कॉनन-बरसि घटा-घट लों नदी चली। बहि तृन, पात-लों तमाम कुल-कॉनि गई, गुरु-गिरि-रोक-टोक ह जिमि रदी चली। लाख-अभिलाख-भोर भ्रॉमन गंभीर लगी, उमगि, उमगि बदि करति बदी चली। धीरज-करार फोरि, लज्जा-द्रुम-तोरि, बारि, नोंकदार नेनन सों निकसि नदी चली ॥" "प्रश्न भाखों से पल नहीं थमता। क्या बला, दिल-ही-दिल में भाव हुभा ॥" ___पा०-१. ( का० ) (वे.) (प्र०) विधु...। २. ( का० ) (३०) दरसावत...। (प्र०) बरसावत....
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