अथ नवमोल्लास: उत्प्रेच्छादि वरनन उत्प्रच्छा औ अपन्हुत्यो, 'सुमरन, भ्रम, सदेहु । इनके भेद अनेक हैं, पै' पाँचौ गनि लेहु ।। ____ उत्पच्छा अलंकार लच्छन जथा -- बस्तु-निरखि के हेतु लखि, कै भागम-फल-काज । कबि के बकता कहति य, लगै अवर-से आज ॥ सँम बाचक कहुँ परत बहु, 'माँनों' 'मेरे जॉन'। 'उत्प्रच्छा'-भूषन कहें, इहि बिधि बुद्धि-निधान ॥ वि० - "जब प्रस्तुत ( उपमेय ) की अप्रस्तुत ( उपमान ) रूप में संभावना की जाय तव 'उत्प्रेक्षा' अलंकार कहा जाता है, यह संस्कृताचार्यों का अभिमत है। यहां संभावना का अर्थ है-'एक कोटि का प्रबल ज्ञान' और उसके द्योतक शब्द हैं-"इव, मैंनु, अँनु, मानों, जॉनों, मांनहुँ, जॉनहुँ, मैंनहु, सा, सी, से, सौ, निश्चय तथा मेरे जॉन" ..आदि..., जैसा दासजी ने कहा है। यही चंद्रा- लोक-कर्ता कहते हैं कि "किसी के धर्म का निषेध न करते हुए अपने हेतु-वितर्क का आरोपण स्पष्ट रूप से दूसरे पर किया जाय तो वहाँ उत्प्रेक्षा कहते हैं (५-२६)। अतएव बहाँ इन वाचक शब्दों का प्रयोग हो वहाँ "वाचयोत्प्रेक्षा" और जहाँ इनका अभाव हो वहाँ "प्रतीयमानोत्प्रेक्षा" कहो-मानी जाती है । यहाँ यह ध्यान में रखना होगा कि सादृश्य-उपमेयोपमान-भाव के बिना केवल संभावना-संबद्ध वाचक शब्द होने पर उत्प्रेक्षा नहीं कही जायगी, क्योंकि उत्प्रेक्षा में भेद का शान रहते हुए-उपमेयोपमान को दो वस्तु समझते हुए, उपमेय में उपमान का श्राहार्य-अारोप (जब वस्तुत अभेद न होने पर भी अभेद मान लिया जाय ) किया जाता है । रूपक में भी यह अारोप होता है, पर वहाँ उपमेय उपमान के अभेद में होता है। उत्प्रेक्षा का सीधा अर्थ है-"शंका विशेष के ___पा०-१ (प्र० मु०) उत्प्रेच्छा भी अपन्हुति.. । २. (का०) (३०) (प्र०) ये । (प्रा .) (का० रा०) ए । ३. (३०) और सो...। ४. (०) हैं। (प्र०) यह । ।
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