१६६ काव्य-निर्णय तृतीय तुल्लजोगता सम ताको मुख्य कहिवे ते जथा- सोबति-जागति सुख-दुखो,' सोई नंद-किसोर । सोई ब्याधि, सोई बैद है, सोई साह, सोई चोर ।। जाइ जुहारों कौन कों, कहा3 काहु सों कॉम । मित्र, मात, पित, बंधु, गुरु, साहिब मेरौ रॉम ॥ वि०-"इस तृतीय तुल्ययोगिता के प्रति 'बहु उत्कृष्ट गुनँन की समता" शीपक भी दिया गया मिलता है। अस्तु, जहाँ गुणों के कारण एक व्यक्ति की समता बहुतों से हो, अथवा बहुत से पदार्थों के उत्कृष्ट गुणों को एक ही पदार्थ में एकत्रित कर वर्णन किया जाय, वहाँ यह पूर्व लिखित तुल्ययोगिता कही जाती है । तुल्ययोगिता का यही भेद-'प्रस्तुत ( उपमेय ) की उत्कृष्ट गुणवालों के साथ गणना करना' मम्मट-अादि श्राचार्यों ने माना है, अन्य भेद (प्रथम- द्वितीय ) नहीं। साथ ही उन्होंने इसे 'प्रस्तुत-अप्रस्तुत दोनों के एक धर्म कहे जाने के कारण दीपक-अलंकार के अंतर्गत कहा है। जैसा प्रथम कहा गया है कि केवल प्रस्तुत होने, वा अप्रस्तुत होने तथा उनमें गुण-क्रिया के कारण धर्मों को एकता होने के कारण यह चार प्रकार की है। प्रथम 'जहाँ केवल कितने ही उपमेयों ( प्रस्तुतों) में गुण-क्रिया द्वारा एक धर्म का, द्वितीय- 'जहाँ केवल कितने ही उपमानों (अप्रस्तुतों) में गुण- क्रिया-द्वारा एक धर्म का' तृतीय-'जहाँ एक-ही प्रस्तुत ( उपमेय ) के अनेक अप्रस्ततों ( उपमानों ) के द्वारा सुंदर गुणों का' और चतुर्थ-'जहाँ एक-ही धर्म-द्वारा हित-अनहित दोनों का वर्णन किया जाय' वहाँ क्रमशः उपरोक्त तुल्ययोगिताएँ' होती है । प्रथम उदाहरण पर किसी उर्दू शायर की ये उक्तियाँ भी दर्शनीय हैं, यथा- "उस मरज़ को मर्जे-इश्क कहा करते हैं। न दवा होती है जिसकी, न दुआ होती है। अथवा- मुहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का। उसी को देखकर जीते हैं, जिस काफिर पं दम निकले।" पा०-१. (३०) दुखद, ( भा० जी०) दुखहुँ, । २. (सं० प्र०) (३०)"न्याधिः बैदी सोई... | ३. (३०) कहाँ कहूँ है... ।
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