पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२३०

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काव्य-निर्णय १६५ द्वितीय तुल्लजोगता हिताहित के सम-फल ते जथा- जे तट पूंजन को विस्तारे, पखा, जे अंगन की मलिनाई। जो तुष जीबन लेति हैं' तिन्हें जीबन देति है आप दिढ़ाई॥ 'दास' न पापी, सुरापी, तपी और जापी हितू-अहितू बिलगाई। गंग तिहारी तरंगन सों, सब पाबें पुरंदर की प्रभुताई ।। वि०-"हिताहित का समफल, अर्थात् शत्रु-मित्र दोनों के साथ समान वर्ताव किये जाने पर दूसरी तुल्ययोगिता कही गयी है। अतः यहाँ पूजन करने वाले जपी-तपी और शरीर के मल धोने वाले पापी, सुरापी रूप हित-अहित कर दोनों को श्री गंगा-द्वारा इद्र की प्रभुता दी जाने पर समान वृत्ति कही गयी है। इसलिये द्वितीय तुल्ययोगिता का यह भेद महाराज भोजराज कृत "सरस्वती-कंठा- भरण" के अनुसार 'चंद्रालोक' और 'कुवलयानंद' में भी कहा गया है और उदाहरण- "संकुचंति सरोनानि स्वैरिणीवदनानि च । प्राचीनाचलचूडान विविबे सुधाकरे ॥" -चंद्रालोक, ५,५२। यह भी श्लेष-मिश्रित होती है........" पुनः उदाहरन जथा- जे सींचे सरपिष-सिता, अरु जे हँने कुठाल । कटु लागै तिन दुहुँन कों, वहे नीम की छाल ॥ वि० - "अर्थात् नीम की छाल घी-सक्कर से सीचने वाले और उसे काटने वाले दोनों को कड़वी लगती है, न कि सीचने वाले को मीठी और काटने वाले को कड़वी । सर्पिष-सिता = घी-चीनी । कुठाल = कुठार ।" पा०-१.(सं० प्र०)...है, देति है, जीबन जे करि गाइ ढिढाई। (३०) है जीवन देत है जे करि पाप ढिढ़ाई । २. (अ० म०) ढिठाई। ३. (अ० र०) जू ..। ४. (३०)(प्र०) (अ० म०) (अ० र०) अरु । (प्र०-३) बरु...। ५. (भा० जी०) (वे.) जो...। ६. (भा० 'जो०) (३०) जो...। ७. (प्र०-३) कुठार | प. (प्र०-३) इहै नीम की हार । (सं० प्र०) है नीम की चाल ।

  • , १० मं० (पो०) पृ० १६४ । अ० २० (अ० २० दा०) पृ० ४२ ।