१६४ काव्य-निर्णय है। प्रथम तुल्ययोगिता में उपमेय-उपमान-भाव छिपे रहते है-अनेक उपमेय- उपमानों का एक धर्म कहा जाता है, पर उपमा की भांति वहां सादृश्य की योजना करने वाले साधारण धर्म-वाचक शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता । इसलिये प्रथम को प्रस्तुतों के एक धर्म तथा अप्रस्तुतों के एक धर्म वर्णन करने पर दो प्रकार की भी इसे कह सकते हैं।" अथ उदाहरन समवस्तुन को एकबार धरम ते जथा- साँझ भोर निसि-बासर-हुँ, क्योंहूँ छीन न होति । सीत-किरन की कालिमा, बाल-बदन' छबि-जोति ॥ वि.--"सम वस्तुओं का एक धर्म - प्रस्तुतों ( उपमेयों) का एक धर्म रूप दासजी का यह प्रथम निदर्शना का उदाहरण -चंद्र की कालिमा और बाल-बदन की छबि दोनों वर्णनीय होने के कारण प्रस्तुत हैं। इन दोनों का-“साँझ-भोर निसि-बासर-हुँ क्यों हूँ छीन न होति" रूप एक ही क्रिया रूप धर्म का वर्णन किया गया है, अतः उक्त तुल्ययोगिता का उदाहरण है।" पुनः उदाहरन जथा- थाह न पाइऐ गंभीर बड़े हैं, सदाँ-ही रहे परिपूरँन-पाँनी । एकै बिलोकि के श्रीजुत 'दास जू' होत उँमाहिल" में अनुमानी ।। भादि वही मरजाद लऐं रहै, है जिनकी मेहमाँ जग-जॉनी। काहू के' क्यों हूँ घटाएं घटै नहिँ सागर पौ गुन-आगर प्रानी - वि०-"यहाँ भी वही पूर्व कथित बात है कि सागर और गुणों के श्रागार प्राणी रूप दोनों के प्रस्तुतों (उपमेयों) का एक धर्म-"काहू के क्योंहू घटाएं घटै नहिं०" श्रादि एक धर्म कहा गया है। इसे श्लेष-मिश्रित तुल्ययोगिता भी कह सकते हैं। साथ ही पूर्व उदाहरण को वयों की धर्म-एकता रूप तुल्ययोगिता कहा जा सकता है।" पा०-१. (सं० प्र०)-बदँन की जोति । २. (सं० प्र०) ( स० स०) बड़ी है...। ३. ( स० स०) रहै...। ४. (सू० स० ) राकै...। ५ ( स० स० ) उमाहित...। ६.(३०) को...। ७. ३० की प्रति में इस बंद के "भावार्थ" शीर्षक के नीचे-"विशेष क्या लिखू सागर जो है श्री गुण आगर प्राणी है तिनकी महिमा किसी के घटाए कमती नहीं होती।" और लिखा है।
- स० स० (ला० म० दी०) पृ० १४५, ११६ ।